देवयानी

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

देवयानी संज्ञा स्त्री॰ [सं॰] शुक्राचार्य की जो राजा ययाति को ब्याही थी । विशेष—बृहस्पति का पुत्र कच मृतसंजीवनी विद्या सीखने के लिये दैत्यगुरु शुक्राचार्य का शिष्य हुआ । शुक्राचार्य की कन्या देवयानी उसपर अनुरक्त हुई । असुरों को जब यह विदित हुआ कि कच मृतसंजीवनी विद्या लेने के लिये आया है तब उन्होंने उसको मार डाला । इसपर देवयानी बहुत विलाप करने लगी । तब शुक्राचार्य ने अपनी मृत- संजीवनी विद्या के बल से उसे जिला दिया । इसी प्रकार कई बार असुरों ने कच का विनाश करना चाहा पर शुक्राचार्य उसे बचाते गए । एक दिन असुरों ने कच को पीसकर शुक्राचार्य के पीने की सुरा में मिला दिया । शुक्राचार्य कच को सुरा के साथ पी गए । जब कच कहीं नहीं मिला तब देवयानी बहुत विलाप करने लगी और शुक्राचार्य भी बहुत धबराए । कच में शुक्राचार्य के पेठ में से ही सब व्यवस्था कह सुनाई । शुक्राचार्य ने देवयानी से कहा कि 'कच तो मेरे पेट में है, आब बिना मेरे मरे उसकी रक्षा नहीं सकती ।' पर देवयानी को इन दोनों में से एक बात भी नहीं मंजूर थी । अंत में शुक्राचार्य ने कच से कहा कि य़दि तुम कच रूपी इंद्र नहीं हो तो मृत- संजीवनी विद्या ग्रहण करो और उसके प्रभाव से बाहर निकज आओ । कच ने मृतसंजीवनी विद्या पाई और वह पेट से बाहर निकल आया । तब देवयानी ने उससे प्रेमप्रस्ताव किया और विवाह के लिये वह उससे कहने लगी । कच गुरु की कन्या से विवाह करने पर किसी तरह राजी न हुए । इसपर देवयानी ने शाप दिया कि तुम्हारी सीखी हुई विद्या फलवती न होगी । कच ने कहा कि यह विद्या अमोघ है । यदि मेरे हाथ से फलवती न होगी तो जिसे मैं सिखाऊँगा उसके हाथ से होगी । पर तुमने मुझे व्य़र्थ शाप दिया । इससे मैं भी शाप देता हूँ कि तुम्हारा विवाह ब्राह्मण से नहीं होगा । दैत्यों के राजा वृषपर्वा की कन्या शर्मिष्ठा और देवयानी में परस्पर सखी भाव था । एक बार दोनों किनारे पर कपड़े रख जलाशय में जलविहार के लिये घुसीं । इंद्र ने वायु का रूप धरकर दोनों के वस्त्र एक स्थान पर कर दिए । शर्मिष्ठा ने जल्दी में देखा नहीं और निकलकर देवयानी के कपड़े पहन लिए । इसपर दोनों में झगड़ा हुआ और शर्मिष्ठा में देवयानी को कुएँ में ढ़केल दिया । शर्मिष्टा यह समझकर कि देव- यानी मर गई अपने घर चली आई । इसी बीच नहुष राजा का पुञ ययति शिकार खेलने आया था । उसने देवयानी को कुएँ से निकाला और उससे दो चार बातें करकें वह अपने नगर की और चला गया । इधर देवयानी ने एक दासी से अपना सब वृत्तांत शुक्राचार्य के पास कहला भेजा । शुक्राचार्य ने आकर अपनी कन्या को घर चलनै के लिये बहुत कहा पर उसने एक भी न सुनी । वह शुक्राचार्य से कहने लगी कि 'शर्मिष्ठा तुम्हारा तिरस्कार करती थी, अतः मैं अब दैत्यों की राजधानी में कदापि न जाऊँगी' । यह सब सुनकर शुक्राचार्य भी दैत्यों की राजधानी छोड़ अन्यत्र जाने को तैयार हुए । यह खबर राजा वृषपर्वा को लगी और वह आकर शुक्राचार्य से बडी़ विनती करने लगा । शुक्राचार्य ने कहा ' देवयानी को प्रसन्न करो' । वृषपर्वा देवयानी को प्रसन्न करने की चेष्टा करने लगा । देवयानी ने कहा, 'मेरी इच्छा है कि शर्मिष्ठा सहस्त्र और कन्याओं सहित मेरी दासी हो । जाहाँ मेरा पिता मुझे दान करे वहाँ वह मेरी दासी होकर जाय' । बृषपर्वा इसपर सम्मत हुआ और अपनी कन्या शर्मिष्ठा को देवयानी की दासी बनाकर शुक्राचार्य के घर भेज दिया । एक दिन देवयानी अपनी नई दासियों के सहित कहीं क्रीड़ा कर रही थी कि राजा ययाति वहाँ आ पहुँचे । देवयानी नें ययाति से विवाह करने की इच्छा प्रकट की । राजा ययति नें स्वीकार कर लिया और शुक्राचार्य ने कन्यादान कर दिया । कुछ दिन पीछे ययाति से शर्मिष्ठा को एक पुत्र उत्पन्न हुआ । जब देवयानी नें पूछा तब शर्मिष्ठा ने कह दिया कि यह लड़का मुझे एक तेजस्वी ब्राह्मण से उत्पन्न हुआ है । इसके उपरांत देवयानी के गर्भ से अदु और तुवँसु नाम के दो पुत्र और शर्मिष्ठा के गर्भ से द्रुह्य, अणु और पुरु ये तीन पुत्र हुए । ययाति से शर्मिष्ठा को तीन पुत्र हुए, यह जानकर देवयानी अत्यंत कुपित हुई और अपने पिता के पास इसका समाचार भेजा । शुक्राचार्य ने क्रोध में आकर ययाति को शाप दिया कि 'तुमने अधर्म किया है इसलिये तुम्हें बहुत शीघ्र बुढ़ा़पा घेरेगा' । ययाति में शुक्राचार्य से विनयपूर्वक कहा—'महाराज मैंने कामवश होकर ऐसा नहीं' किया, शर्मिष्ठा ने ऋतृमती होने पर ऋतुरक्षा के लिये प्रार्थना की । उसकी प्रार्थना को अस्वीकार करना मैंने पाप समझा । मेरा कुछ दोष नहीं' । शुक्राचार्य ने कहा' अब तो मेरा कहा हुआ निष्फल नहीं हो सकता । पर यदि कोई तुम्हारा बुढ़ा़पा ले लेगा तो तुम फिर ज्यों के त्यों जवान हो जाओगे ।'