दौ

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

दौ पु संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ दव]

१. आग । जंगल की आग । उ॰— (क) मन पाँचों के बस परा मन के बस नहीं पाँच । जित देखौ तित दौ लगी, जित भागौ तित आँच ।—कबीर (शब्द॰) । (ख) तौ लौं मातु आपु नीके हरिबो । जौ लौं हौं ल्यावों रघुबीरहि दिन दस और दुसह दुख सहिबो ।...लंक दाहु उर आनि मानिबो साँचु रामसेवक को कहिबो । तुलसी प्रभु को सुर सुजस गैहैं मिटि जैहैं सबके सोच दौ दहिबो ।— तुलसी (शब्द॰) ।

२. संताप । ताप । जलन । उ॰—ससि ते शीतल मोको लागै माई री तरनि । याके उए बरति अधिक अंग अंग दौ, वाके उए मिटति रजनि जनित जरनि । सब विपरीत भये माधो बिनु, हित जो करत अनहित सत की करनि । तुलसीदास स्यामसुंदर विरह की दुसह दसा सो मोपै परती नहीं बरनि ।—तुलसी (शब्द॰) ।