धातु
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]धातु ^१ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰]
१. वह मूल द्रव्य जो अपारदर्शक हो, जिसमें एक विशेष प्रकार की चमक हो, जिसमें से होकर ताप और विद्युत् का संचार हो सके तथा जो पीटने अथवा तार के रूप में खींचने से खंडित न हो । एक खनिज पदार्थ । विशेष— प्रसिद्ध धातुएँ हैं— सोना, चाँदी, ताँबा, लोहा, सीसा और राँगा । इन धातुओं में गुरुत्व होता है, यहाँ तक कि राँगा जो बहुत हलका है वह भी से सात गुना अधिक धना या भारी होता है । ऊपर लिखी धातुओं में केवल सोना, चाँदी ओर ताँबा ही विशुद्ध रूप में मिलते हैं; इससे इन पर बहुत प्राचीन काल में ही लोगों का ध्यान गया । कहीं कहीं, विशेषतः उल्कापिंडों में, लोहा भी विशुद्ध रूप में मिलता है । युरोपियनों के जाने के पहले अमेरिकावाले उल्कापिंडों के लोहे के अतिरिक्त और किसी लोहे का व्यवहार नहीं जानते थे । सीसा और राँगा वुशुद्ध धातु के रूप में प्रायः नहीं मिलते, बल्कि खनिज पिंडों को गलाकर साफ करने से निकलते हैं । राँगा, सीसा, जस्ता आदि शुद्ध रूप में न मिलनेवाली धातुओं का ज्ञान लोगों को कुछ काल पीछे, जब वे मिश्र धातु आदि बनाने लगे, तब हुआ । बहुत दिनों तक लोग पीतल तो बना लेते थे पर जस्ते को अच्छी तरह नहीं जानते थे । यही हाल राँगे का भी समझिए । पारे को भी लोग बहुत दिनों से जानते हैं । यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि पारा शुद्ध धातु के रूप में भी बहुत मिलता है । पारा अर्धद्रव अवस्था में मिलता है इसी से युरोप में बहुत दिनों तक लोग उसे धतुओं में नहीं गिनते थे । पीछे मालूम हुआ कि वह सरदी से जम सकता है और उसका पत्तर बन सकता है । मूल धातुओं के योग से मिश्र धातुएँ बनती हैं— जैसे ताँबे और राँगे के योग के काँसा आदि । इनके अतिरिक्त अब अलु- मिनियम, प्लेटिनम, निकल, कोवाल्ट आदि बहुत सी नई धातुओं का पता लगा हैं । इस प्रकार धातुओं की संख्या अब बहुत हो गई है । रेडियम नामक धातु का पता लगे अभी थोडे़ ही दिन हुए हैं । यद्यपि साधारणतः धातु उन्हीं द्रव्यों को कहते हैं जो पीटने से बिना खंडित या चूर हुए बढ़ सकें, तथापि अब धातु शब्द के अंतर्गत चूर होनेवाले द्रव्य भी लिए जाते है और अर्ध- धातु कहलाते हैं, जैसे संखिया, हरताल, सुरमा, सज्जीखार इत्यादि । इस प्रकरा क्षार उत्पन्न करनेवाले मूल पदार्थ भी धातु के अंतर्गत आ गए हैं । ऊपर कहा जा चुका है कि धातुओं की गणना मूल द्रव्यों में है । आधुनिक रसायन शास्त्र में मूल द्रव्य उसको कहते हैं जिसका विश्लेषण करने पर किसी दूसरे द्रव्य का योग न मिले । इन्हीं मूल द्रव्यो के अणुयोग से जगत् के भिन्न भिन्न पदार्थ बने हैं । आज तक १०० से अधिक मूल द्रव्यों का पता लग चुका है जिनमें से गंधक, फासफरस, अम्लंजन, उज्जन, इत्यादि १३ की गणना धातुओं में नहीं हो सकती बाकी सब धातु ही माने जाते हैं । तपे हुए लोहे, सीसे, ताँबे आदि के साथ जब अम्लजन नामक वायव्य द्रव्य का योग होता है तब वे विकृत हो जाते हैं (मुरचा इसी प्रकार का विकार है) । विकृत होकर जो पदार्थ उत्पन्न होता है, उसे भस्म या क्षार कह सकते हैं, यद्यपि वैद्यक में प्रचलित भस्म और दूसरे प्रकरा से प्राप्त द्रव्यों को भी कहते हैं । देशी वैद्य भस्म, क्षार और लवण में प्रायः भेद नहीं करते, कहीं कहीं तीनों शब्दों का प्रयोग वे एक ही पदार्थ के लिये करते हें । पर आधुनिक रसायन में क्षार और अम्ल के योग से जो पदार्थ उत्पन्न होते हैं उनको लवण कहते हैं । इस प्रकार आजकल वैज्ञानिक व्यवहार में लवण शब्द के अंतर्गत तूतिया हीरा, कमीम आदि भी आ जाते हैं । ताँबे के चूरे को यदि हवा में (जिसमें अम्लजन रहता है) तपा या गलाकर उसमें थोडा सा गंधक का तेजाब डाल दें तो तेजाब का अम्ल गुण नष्ट हो जाएगा और इस योग से तूतिया उत्पन्न होगा । अतः तूतिया भी लवण के अंतर्गत हुआ । इधर के वैद्यक ग्रंथों में सोना, चाँदी, ताँबा, राँगा, लोहा, सीसा और जस्ता ये सप्त धातु माने गए हैं । सोनामाखी, रूपामाखी, तूतिया, काँसा, पीतल, सिंदूर और शिलाजतु ये सात उपधातु कहलाते हैं । पारे को रस कहा हैं । गंधक, ईगुर, अभ्रक, हरताल, मैंनसिल, सुरमा, सुहागा, रावटी, चुंबक, फिटकरी, गेरू, खड़िया, कसीक, खपरिया, बालू, मुरदासंख, ये सब उपरस कहलाते हैं । धातुओं के भस्म का सेवन वैद्य लोग अनेक रोगों में कराते हैं ।
२. शरीर को धारण करनेवाला द्रव्य । शरीर को बनाए रखनेवाले पदार्थ । विशेष— वैद्यक में शरीरस्थ सात धातुएँ मानी गई हैं— रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थिमज्जा और शुक्र । सुश्रृत में इनका विबरण इस प्रकार मिलता हैं । जो कुछ खाया जाता है उससे जो द्रव रूप सूक्ष्म सार बनता है वह रस कहलता है और उसका स्थान हृदय है जहाँ से वह धमनियों के द्वारा सारे शरीर में फैलता है । यही रस अविकृत अवस्था में शेव (पित्त के कार्य) के साथ मिश्रित होकर लाल रंग का हो जाता है और रक्त कहलाता है । रक्त से मांस, शीव से मेद, मेद से हड्डी, हड्डी से मज्जा और मज्जा के शुक बनता है । वात, पित्त और कफ की भी धातु संज्ञा है ।
३. बुद्ध या किसी महात्मा की अस्थि आदि जिसे बौद्ध लोग डिब्बे में बंद करके स्थापित करते थे । यौ॰— धातुगर्भ ।
४. शुक्र । वीर्य ।
धातु ^२ संज्ञा पुं॰
१. भूत । तत्व । उ॰— जाके उदित नचत नाना विधि गति अपनी अपनी । सूरदास सब प्रकृति धातुमय अति विचित्र सजनी ।—सूर (शब्द॰) । विशेष— पंचभूतों और पंचतन्मात्र को भी धातु कहते हैं । बौद्धों में अठारह धातुएँ मानी गई हैं— चक्षुधातु, घ्राणधातु, श्रोत्रधातु, जिह्वाधातु, कायधातु, रूपधातु, शब्दधातु, गंध- धातु, रसधातु, स्थातव्यधातु, चक्षुविज्ञानधातु, श्रोत्रविज्ञान धातु, घ्राणविज्ञानधातु, जिह्वाविज्ञानधातु, कायविज्ञानधातु, मनोधातु, धर्मधातु, मननोविज्ञानधातु ।
२. शब्द का मूल । क्रियावाचक प्रकृति । वह मूल जिससे क्रियाएँ बनी हैं या बनती हैं । जैसे, संस्कृत में भू, कृ, धृ इत्यादि (व्याकरण) । विशेष— यद्यपि हिंदी व्याकरण में धातुओं की कल्पना नहीं की गई है, तथापि की जा सकती है । जैसे, करना का 'कर' हँसना का 'हँस' इत्यादि ।
३. परमात्मा ।