धुर
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]धुर ^१ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰]
१. जूआ जो बैलों आदि के कंधे पर रखा जाता है ।
२. बोझ । भार ।
३. गाड़ी आदि का धुरा । अक्ष ।
४. खूँटी ।
५. शीर्षस्थान । अच्छी और ऊँची जगह ।
६. उँगली ।
७. चिनगारी ।
८. भाग । अंश ।
९. धन । संपत्ति ।
१०. गंगा का एक नाम ।
धुर ^२ संज्ञा पुं॰ [सं॰ धुर्]
१. गाड़ी या रथ आदि का घुरा । अक्ष ।
२. शीर्ष या प्रधान स्थान ।
३. भार । बोझ । उ॰— जो न होत जग जन्म भरत को । सकल धर्म्म धूर धरणि धरत को ।— तूलसी (शब्द॰) ।
४. आरंभ । शुरू । उ॰— घुर ही ते खोटो खाटो है लिए फिरत सिर भारी ।—सूर (शब्द॰) । मुहा॰— घुर सिर से = बिलकुल आरंभ से । बिलकुल शुरू से । जैसे,— तुमने बना बनाया काम बिगाड़ दिया, अब हमें फिर धुर सिर से करना पडे़गा ।
५. जूआ जो बैलों आदि के कंधे पर रखा जाता है ।
६. जमीन की माप जो बिस्वे का बीसवाँ भाग होता है । बिस्वांसी ।
७. प्रथम । उ॰— जलबा काज नरुकी जादम । धुर ऊठी पतिबरत तणै ध्रम ।— रा॰ रू॰, पृ॰ १७ ।
८. आसामी । उ॰— बदले तुसरै वाणित्राँ, धुर गौढ़ा लै धान ।—बाँकी॰ ग्रं॰, भा॰ २, पृ॰ ६५ ।
धुर ^३ अव्य॰ [सं॰ धुर्] न इधर न उधर । बिलकुल ठीक । सटीक । सीधे । जैसे, धुर ऊपर, धूर नीचे । उ॰— अंतःपुर धुर जाय उतारें आरती । निरखि पुत्र को रूप सरूप बिसारती ।—रघु- नाथ (शब्द॰) ।
२. एक दम दूर । बिल्कुल दूर । उ॰— मोती लादन पिय गए धुर पटना गुजरात ।—गिरिधर (शब्द॰) ।
धुर ^४ वि॰ [सं॰ ध्रुव] पक्का । दृढ़ ।