ध्रुवतारा

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

ध्रुवतारा संज्ञा पुं॰ [सं॰ ध्रुव+तारक, हि॰ तारा] वह तारा जो सदा ध्रुव अर्थात् मेरु के ऊपर रहता है,क कभी इधर उधर नहीं होता हैँ । विशेष— यह तारा बहुत चमकीला नहीं हैं और सप्तर्षि के सिरे पर के दो तारों की सीध में उत्तर की ओर कुछ दुर पर दिखाई पड़ता है । इसकी पहचान यही है कि यह अपना स्थान नहीं बदलता । सारा राशिचक्र इसके किनारे फिरता हुआ जान पड़ता है और यह अपने स्थान पर अचल रहता है । रात के प्रत्येक पहर में उठ उठकर इसके साथ सप्तर्षि को ही देखने से इसका अनुभव हो सकता है । जिस आकार सप्तर्षि में सात तारे हैं उसी प्रकार जिस शिशुमार नामक तारकपुंज के अंतर्गत ध्रृब है उसमें भी सात तारे हैं । इन सातों में ध्रुव पहला और उज्वल है । ध्रुव तारा सदा एक ही नहीं । रहता । पृथ्वी के अक्ष या मेरु से जिस तारे का व्यवधान सबसे कम होता है अर्थात् पृथ्वी के अक्षबिंदु की सीघ से जो तारा सबसे कम हटकर होता है वही ध्रुवतारा होता है । आजकल जो ध्रुवतारा हैं वह मेरु या अक्षबिंदु से १ १/२ अंश पर है । अयनवृत्त के चारों और नाड़ीमंड़ल के मेरु को पीछे छोड़ता हुआ उसकी सीध से बहुत हट जायगा ओर तब अभिजित् नामक नक्षत्र ध्रुवतारा होगा । आज से पाँच हजार बर्ष पहले थूवन नामक तारा ध्रुवतारा था । वर्तमान ध्रुव का व्यवधानांतर आजकर मेरु से १ १/४ अंश हो पर सन् १७८५ ई॰ में

२. अंश

२. कला था और दो हजार वर्ष पहले १२ अंश था । भारतवासियों के ध्रुव का परिचय अत्य़ंत प्राचीन काम से है । विवाह के वेदिक मंत्र में ध्रुवतारा का नाम आता है । भारतीय ज्योतिर्विदों के मतानुसार दो ध्रुवतारों हैं ।— एक उत्तर ध्रुव की सीध में, दुसरा दक्षिण ध्रुव का सीध में ।