ध्वजा
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]ध्वजा संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ ध्वज]
१. पताका । झंड़ा । निशान । उ॰— (क) ध्वजा फरवकै शून्य में बाजै अनहद तूर । तकिया है मैदान मे पहुँचेगे कोहनुर ।— कबीर (शब्द॰) । (ख) करि कपि कटक चले लंका को छिन में बाँध्यो सेत । उतरि गए पहुंचे लंका पै विजय ध्वजा संकेत ।—सूर (शब्द॰) । विशेष— दे॰ 'ध्वज' । मुहा॰— ध्वजा फहराना = कीर्ति प्राप्त करना । यशस्वी बनना । उ॰— श्वासा सार तार जोरिआना । अधर अमान ध्वजा फहराना ।— कबीर सा॰, पृ॰ १५३८ ।
२. एक प्रकार की कसरत । विशेष— यह दो प्रकार होती है एक मलखंभ पर की दुसरी चौरंगी । मलखंभ पर यह कसरत तौल के ही समान की जाती है । केवल विशेष इतना ही करना पड़ता है कि इसमें मलखभ को हाथ से लपेटकर उसकी एक बगल में सारा शरीर सीधा दंड़ाकर तौलना पड़ता है । इसे संस्कृत में 'ध्वज' कहते हैं । चौरंगी में हाथ पाँव अंटी से बाँध खड़े रखे जाते है ।
३. छंदःशास्त्रानूसार ठगण का पहला भेद जिसमें पहले लघु फिर गुरु आता है ।