नाथ
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]नाथ ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰]
१. प्रभु । स्वामी । अधिपति । मालिक ।
२. पति ।
३. वह रस्सी जिसे बैल भैंसे आदि की नाक छेदकर उसमें इसलिये डाल देते हैं जिसमें वे वश में रहें । उ॰— रंगनाथ ही जाकर हाथ ओही के नाथ । गहे नाथ सो खींचै फेरत फिरै न माथ । —जायसी (शब्द॰) ।
४. मत्स्येंद्रनाथ के अनुयायी योगियों की एक उपाधि । गोरखपंथी साधुओं की एक पदवी जो उनके नामों के साथ ही मिली रहती है ।
५. नाथ सिद्धों का परम तत्व । उ॰—पिंड प्राण की रक्षा श्री नाथ निरंजन करे ।—रामानंद॰, पृ॰ ३ ।
६. एक प्रकार के मदारी जो साँप पालते और नचाते हैं । मुहा॰—नाथ पड़ना = जिम्मेदारी आना ।
नाथ ^२ संज्ञा स्त्री॰ [हिं॰ नाथना]
१. नाथने की क्रिया या भाव । उ॰— रंग नाथ हौं जाकर हाथ ओहि के नाथ । गहे नाथ सो खींचै फेरे फिरै न माथ । —जायसी (शब्द॰) ।
नाथ † ^३ संज्ञा स्त्री॰ [हिं॰ नथ]दे॰ 'नथ' । उ॰— परी नाथ कोइ छुवै न पारा । मारग मानुस सोन उछारा । —जायसी (शब्द॰) ।
नाथ संप्रदाय संज्ञा पुं॰ [सं॰ नाथ + सम्प्रदाय] गोरखनाथ का चलाया हुआ एक पंथ ।उ॰— नाथ संप्रदाय के आदि प्रवर्तक 'आदि नाथ' शिव ही कहे जाते हैं ।—पू॰ म॰ भा॰, पृ॰ ३३५ ।