निग्रहस्थान

विक्षनरी से


हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

निग्रहस्थान संज्ञा पुं॰ [सं॰] वादविवाद या शास्त्रर्थ में वह अवसर जहाँ दो शास्त्रर्थ करनेवालों में से कोई उलटी पलटी या नासमझी की बात कहने लगे और उसे चुप करके शास्त्रार्थ बंद कर देना पड़े । यह पराजय का स्थान है । विशेष— न्याय में जहाँ विप्रतिपत्ति (उलटा पुलटा ज्ञान) या अप्रतिपति (अज्ञान) किसी ओर से हो वहाँ निग्रहस्थान होता है । जैसे, वादी कहे— आग गरम नहीं होती । प्रतिवादी कहे कि स्पर्श द्वारा गरम होन प्रमाणित होता है । इसपर वादी यदि बागल झाँकने लगे और कहे कि मैं यह नहीं कहता कि आग गरम होती, इत्यादि तो उसे चुप कर देना चाहिए या मूर्ख कहकर निकाल देना चाहिए । निग्रहस्थान २२ कहे गए हैं— प्रतिज्ञाहानि, प्रतिज्ञांतर, प्रतिज्ञा- विरोध, प्रतिज्ञासंन्यास, हेत्वंतर, अर्थातर, निरर्थक, अविज्ञा- तार्थ, अपार्थक, अप्राप्तकाल, न्यून, अधिक, पुनरुक्त, अननु- भाषण, अज्ञान, अप्रतिभा, विक्षेप, मतानुज्ञा पर्य्यनुयोज्यो- पेक्षण, निरनुयोज्यानुयोग । अपसिद्धांत और हेत्वाभास । (१) प्रतिज्ञाहानि वहाँ होती है जहाँ प्रतिदृष्टांत के धर्म को अपने दृष्टांत में मानकर अपने प्रतिज्ञा को छोड़ता है । जैसे, एक कहता है—शब्द अनित्य है । क्योकि वह इंद्रियविषय है । जो कुछ इंद्रियविषय हो वह घर की तरह अनित्य है । शब्द इंद्रियविषय है । अतः शब्द अनित्य है । दूसरा कहता है— जाति (जैसे घटत्व) इंद्रियविषय होने पर भी नित्य है इसी प्रकार शब्द ही कयों नहीं । इसपर पहला कहता है— जो कुछ इंद्रियविषय हो वह घट की तरह नित्य है । उसके इस कथन से प्रतिज्ञा की हानि हुई । (२) प्रतिज्ञांतर वहाँ होता है जहाँ प्रतिज्ञा का विरोध होने पर कोई अपने दृष्टांत और प्रतिदृष्टांतं में विकल्य से एक और नए धर्म का आरोप करता है । जैसे, एक, आदमी कहता है— शब्द अनित्य है, क्योंकि वह घट के समान इंद्रियों का विषय है । दूसरा कहता है—शब्द नित्य है, क्योंकि वह जाति के समान इंद्रियविषय है । इसपर पहला कहता है कि पात्र और जाति दोनों इद्रियविषय हैं । पर जाति सर्वगत है और घट सर्वगत नहीं । अतः शब्द सर्वगत न होने से घट के समान अनित्य है । यहाँ शब्द अनित्य है, यह पहली प्रतिज्ञा थी; शब्द सर्वगत नहीं, यह दूसरी प्रतिज्ञा हुई । एक प्रतिज्ञा की साधक दुसरी प्रतिज्ञा नहीं हो सकती, प्रतिजा के साधक हेतु और दृष्टांत होते हैं । (३) जहाँ प्रतिज्ञा और हेतु का विरोध हो वहाँ प्रतिज्ञाविरोध होता है; जैसे, किसी ने कहा—द्रव्य गुण से भिन्न हैं (प्रतिज्ञा), क्योंकि उसकी उपलब्धि रूपादिक से भिन्न नहीं होती । यहाँ प्रतिज्ञा और हेतु में विरोध है क्योंकि यदि द्रव्य गुण से भिन्न है तो वह रूप से भी भिन्न हुआ । (४) जहाँ पक्ष का निषेध होनेपर माना हुआ अर्थ छोड़ दिया जाय वहाँ प्रतिज्ञा संन्यास होता है । जैसे, किसी ने कहा— 'इंद्रियविषय होने से शब्द अनित्य है' । दूसरा कहता है जाति इंद्रियाविषय है, पर अनित्य नहीं, इसी प्रकार शब्द भी समझिए । इस प्रकार पक्ष का निषेध होने पर यदि पहला कहने लगे कि कौन कहता है कि 'शब्द अनित्य है' तो उसका यह कथन प्रतिज्ञासंन्यास नामक निग्रहस्थान के अंतर्गत हुआ । (५) जहाँ अविशेष रूप से कहे हुए हेतु का निषेध होने पर उसमें विशेषत दिखाने की चेष्टा की जाती है वहाँ हेत्वंतर नाम का निग्रहस्थान होता है । जैसे, किसी ने कहा— 'शब्द अनित्य है' क्योंकि वह इंद्रियविषय है । दूसरा कहता है कि इंद्रियविषय होने से ही शब्द अनित्य नहीं कहा जा सकता क्योंकि जाति (जैसे घटत्व) भी तो इंद्रियविषय है पर वह अनित्य नहीं । इसपर पहला कहता है कि इंद्रियविषय होना जो हेतु मैंने दिया है, उसे इस प्रकार क ा इंद्रियविषय समझना चाहिए जो जाति के अंतर्गत लाया जा सकता हो । जैसे, 'शब्द' जाति के अंतर्गत लाया जा सकता है (जैसे, शब्दत्व) पर जाति (जैसे घटत्व) फिर जाति के अंतर्गत नहीं लाई जा सकती । हेतु का यह टालना हेत्वंतर कहलाता है । (६) जहाँ प्रकृत विषय या अर्थ संबंध रखनेवाला विषय उपस्थित किया जाता है वहाँ अर्थातर होता है; जैसे, कोई कहे कि शब्द अनि़त्य है, क्योंकि वह अस्पृश्य है । विरोध होनेपर यदि वह इधर उधर की फजूल बाते बकने लगे, जैसे हेतु शब्द 'हिं' धातु सें बना है, इत्यादि, तो उसे अर्थांतर नामक निग्रहस्थान में आया हुआ समझना चाहीए । (७) जहाँ वर्णों की बिना अर्थ की योजना की जाय वहाँ निरर्थक होता है । जैसे कोई कहे क ख ग नित्य है ज व ग ड से । (८) जब पक्ष का विरोध होने पर अपने बचाव के लिये कोई ऐसे शब्दों का प्रयोग करने लगे जो अर्थप्रसिद्ध न होने के कारण जल्दी समझ में न आए अथवा बहुत जल्दी ओर अस्पष्ट स्वर में बोलने लगे तब अविज्ञातार्थ नामक निग्रहस्थान होता है । (९) जहाँ अनेक पदों या वाक्यों का पूर्वापर क्रम से अन्वय न हो, पद और वाक्य असंबद्ध हों, वहाँ अपार्थक होता है । (१०) प्रतिज्ञाहेतु आदि अवयव क्रम से न कहे जायें, आगे पीछे उलट पुलटकर कहे जायँ वहाँ अप्राप्तकाल होता है । (११) प्रतिज्ञा आदि पाँच अव्यवों में से जहाँ कथन में कोई अव्यव कम हो वहाँ न्यून नामक निग्रहस्थान होता है । (१२) हेतु और उदाहरण जहाँ आवश्यकता से अधिक हो जायँ वहाँ अधिक नामक निग्रहस्थान होता है क्योंकि जब एक हेतु और उदाहरण से अर्थ सिद्ध हो गया तब दूसरा हेतु और उदाहरण व्यर्थ है । पर यह बात पहले नियम के मान लेने पर है । (१३) जहाँ व्यर्थ पुनःकथन हो वहाँ पुनरुक्त होता है । (१४) चुप रह जाने को अननुभाषण कहते हैं । जहाँ वादी अपना अर्थ साफ साफ तीन बार कहे ओर प्रतिवादी सुन कर समझकर भी कोई उत्तर न दे वहाँ अननुभाषण नामक निग्रहस्थान होता है । (१५) जिस बात को सभासद समझ गए हों उसी की तीन बार समझने पर भी यदि प्रतिवादी न समझे तो अज्ञान नामक निग्रहस्थान होता है । (१६) जहाँपर पक्ष का खंडन अर्थात् उत्तर न बने वहाँ अप्रतिभा नामक निग्रहस्थान हाता है । (१७) जहाँ प्रतिवादि इस प्रकार टाल टूल कर दे कि 'मुझे इस समय काम है, फिर कहूँगा' वहाँ विक्षेप होता है । (१८) जहाँ प्रतिवादी के दिए हुए दोष को अपने पक्ष में अंगीकार करके वादी बिना उस दोष का उद्धार किए प्रतिवादी से कहे कि 'कुम्हारे कथन में भी तो यह दोष है' वहाँ मतानुज्ञा नामक निग्रहस्थान होता है । (१९) जहाँ निग्रहस्थान में प्राप्त हो जानेवाले का निग्रह न किया जाय वहाँ पर्यनुयोज्योपेक्षण होता है । (२०) जो निग्रहस्थान में न प्राप्त होनेवाले को निग्रहस्थान में प्राप्त कहे उसे निरनुयोज्यानुयोग नामक निग्रहस्थान में गया समझना चाहिए । (२१) जहाँ कोई एक सिद्धांत को मानकर विवाद के समय उसके विरुद्ध कहता है वहाँ अपसिद्धांत नामक निग्रहस्थान होता है । (२२) दे॰ 'हेत्वाभास' ।