निधि
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]निधि संज्ञा स्त्री॰ [सं॰]
१. गड़ा हुआ खजाना । खजाना । विशेष—पृथ्वी में गढ़ा हुआ धन यदि राजा को मिले तो उसे आधा ब्राह्मणादि को देकर आधा ले लेना चाहिए । विद्वान् ब्राह्मण यदि पावे तो उसे सब ले लेना चाहिए । यदि अपनि ब्राह्मण या क्षत्रिय आदि पावें तो राजा को उन्हें छठा भाग देकर शेष ले लेना चाहिए । यदि कोई निधि पाकर राजा को संवाद न दे तो राजा को उसे दंड देना चाहिए और सारा खजाना ले लेना चाहिए (मिताक्षरा) ।
२. कुबेर के नौ प्रकार के रत्न । ये नौ रत्न ये हैं—पदम, महापद्म, शंख, मकर, कच्छप, मुकुंद, कुंद नील और वर्च्च । विशेष—ये सब निधियाँ लक्ष्मी की अश्रित हैं । जिन्हें ये प्राप्त होती है उन्हें भिन्न भिन्न रुपों में घनागम आदि होता है । जैसे पदमनिधि के प्रभाव से मनुष्य सोने, चाँदी ताँबे आदि का खूब उपभोग औग क्रयविक्रय करता है, महापदमनिधि की प्राति से रत्न, मोती, मुँगे आदि की अधिकता रहती गै, इत्यादि । मार्कडेय पुराण इनमें अंतिम निधि को छोड़कर आठ निधि का उल्लेख करता है । अंतिम निधि वर्च्च को कहीं कहीं खर्ग नाग कहा गया है ।
३. समुद्र ।
४. आधार । घर । जैसे, जलनिधि, गुणनिधि ।
५. विष्णु ।
६. शिव ।
७. नौ की संख्या ।
८. जीवक नाम की ओषधि ।
९. नलिका नामक द्रव्य ।
१०. व्यक्ति जो विविध गुणयुक्त हो (को॰) ।
११. वह स्थान जहाँ संपत्ति, द्रव्य आदि रखा जाय ।