निर्वाण

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हिन्दी[सम्पादन]

निर्वाण का अर्थ है अंत, समाप्ति, परमपद, अपवर्ग, मोक्ष, मुक्ति, परमधाम और सतलोक को प्राप्त होना।

मुहावरा:
मानव जीवन पूर्ण परमात्मा की शास्त्रानुसार भक्ति करके निर्वाण/मोक्ष प्राप्त करने के लिए प्राप्त होता है।

निर्वाण; एक संस्कृत शब्द है और पाली में इसे "निब्बाण" कहते हैं। निर्वाण जन्म मृत्यु के दीर्घ रोग से सदा के लिए मुक्ति है।

निर्वाण' की व्युत्पत्ति[सम्पादन]

वाण, अर्थात 'दुर्गन्ध', + निर, अर्थात "मुक्ति": "पीड़ादायक कर्म की दुर्गन्ध से मुक्ति" ।

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

निर्वाण ^१ वि॰ [सं॰]

१. बुझा हुआ (दीपक अग्नि, आदि) ।

२. अस्त । डूबा हुआ ।

३. शांत । धीमा पडा़ हुआ ।

४. मृत । मरा हुआ ।

५. निश्चल ।

६. शून्यता को प्राप्त ।

७. बिना बाण का ।

निर्वाण ^२ संज्ञा पुं॰

१. बुझना । ठंढा होना ।

२. समाप्ति । न रह जाना ।

३. अस्त । गमन । डूबना ।

४. हाथी को धोना या नहाना (को॰) ।

५. संगम । संयोग । मिलन (को॰) ।

६. समाप्ति । पूर्णता (को॰) ।

७. शांति ।

८. मुक्ति । मोक्ष । विशेष—यद्यपि मुक्ति के अर्थ में निर्वाण शब्द का प्रयोग गीता, भागवत, रघुवंश, शारीरक भाष्य इत्यादि नए पुराने ग्रंथों में मिलता है, तथापि यह शब्द बौद्धों का पारिभाषिक है । सांख्य, न्याय, वैशेषिक, योग, मीमांसा (पूर्व) और वेदांत में क्रमशः मोक्ष, अपवर्ग, निःश्रेयस, मुक्ति या स्वर्गप्राप्ति तथा कैवल्य शब्दों का व्यवहार हुआ है पर बौद्ध दर्शन में बराबर निर्वाण शब्द ही आया है और उसकी विशेष रूप से व्याख्या की गई है । बौद्ध धर्म की दो प्रधान शाखाएँ हैं—हीनयान (या उत्त- रीय) और महायान (या दक्षिणी) । इनमें से हीनयान शाखा के सब ग्रंथ पाली भाषा में हैं और बौद्ध धर्म के मूल रूप का प्रतिपादन करते हैं । महायान शाखा कुछ पीछे की है और उसके सब ग्रंथ सस्कृत में लिखे गए हैं । महायान शाखा में ही अनेक आचार्यों द्वारा बौद्ध सिद्धांतों का निरूपण गूढ़ तर्कप्रणाली द्वारा दार्शनिक दृष्टि से हुआ है । प्राचीन काल में वैदिक आचार्यों का जिन बौद्ध आचार्यों से शास्त्रार्थ होता था वे प्रायः महायान शाखा के थे । अतः निर्वाण शब्द से क्या अभिप्राय है इसका निर्णय उन्हीं के वचनों द्वारा हो सकता है । बोधिसत्व नागार्जुन ने माध्यमिक सूत्र में लिखा है कि 'भवसंतति का उच्छेद ही निर्वाण है, अर्थात् अपने संस्कारों द्वारा हम बार बार जन्म के बंधन में पड़ते हैं इससे उनके उच्छेद द्वारा भवबंधन का नाश हो सकता है । रत्नकूटसूत्र में बुद्ध का यह वचन हैः राग, द्वेष और मोह के क्षय से निर्वाण होता है । बज्रच्छेदिका में बुद्ध ने कहा है कि निर्वाण अनुपधि है, उसमें कोई संस्कार नहीं रह जाता । माध्यमिक सूत्रकार चंद्रकीर्ति ने निर्वाण के संबंध में कहा है कि सर्वप्रपंचनिवर्तक शून्यता को ही निर्वाण कहते हैं । यह शून्यता या निर्वाण क्या है ! न इसे भाव कह सकते हैं, न अभाव । क्योंकि भाव और अभाव दोनों के ज्ञान के क्षप का ही नाम तो निर्वाण है, जो अस्ति और नास्ति दोनों भावों के परे और अनिर्वचनीय है । माधवाचार्य ने भी अपने सर्वदर्शनसंग्रह में शून्यता का यहि अभिप्राय बतलाया है—'अस्ति, नास्ति, उभय और अनुभय इस चतुष्कोटि से विनिमुँक्ति ही शून्यत्व है' । माध्यमिक सूत्र में नागार्जुन ने कहा है कि अस्तित्व (है) और नास्तित्व (नहिं है) का अनुभव अल्पबुद्धि ही करते हैं । बुद्धिमान लोग इन दोनों का अपशमरूप कल्याण प्राप्त करते हैं । उपयुक्त वाक्यों से स्पष्ट है कि निर्वाण शब्द जिस शून्यता का बोधक है उससे चित्त का ग्राह्यग्राहकसंबंध ही नहीं है । मै भी मिथ्या, संसार भी मिथ्या । एक बात ध्यान देने की है कि बौद्ध दार्शनिक जीव या आत्मा की भी प्रकृत सत्ता नहीं मानते । वे एक महाशून्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं मानते । यौ॰—निर्वाणभूयिष्ठ = लुप्त । निर्वाणमस्तक = मोक्ष । निर्वाण- रुचि = मोक्ष की प्राप्ति में लगा हुआ ।