निष्क

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

निष्क संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. वैदिक काल का एक प्रकार का सोने का सिक्का या मोहर जिसका मान भित्र भित्र समयों में भिन्न भिन्न था । विशेष—प्राचीन काल में यज्ञों में राजा लोग ऋषियों और ब्राह्मणों को दक्षिणा में देने के लिये सोने के बराबर तौल के टुकड़े कटवा लिया करते थे जो 'निष्क' कहलाते थे । सोने के इस प्रकार टुकड़े कराने का मुख्य हेतु यह होता था कि दक्षिणा में सब लोगों को बराबर सोना मिले, किसी के पास कम या ज्यादा न चला जाय । पीछे से सोने के इन टुकडों पर यज्ञस्पतूप आदि के चिन्ह और नाम आदि बनाए या खोदे जाने लगे । इन्हीं टुकड़ों ने आगे चलकर सिक्कों का रूप घारण कर लिया । उस समय कृछ लोग इन टुकड़ों को गूँथकर और उनकी माला बनाकर गले में भी पहनते थे । भिन्न भिन्न समयों में निष्क का मान नीचे लिखे अनुसार था । एक निष्क = एक कर्ष (१६ माशे) " " = " सुवर्ण " " " = " दीनार , " " = " पल (४ या ५ सुवर्ण) " " = चार माशे " " = १०८ अथवा १५० सुवर्ण ।

२. प्राचीन काल में चाँदी की एक प्रकार की तौल जो चार सुवर्ण के बराबर होती थी ।

३. वैद्यक में चार माशे की तौल । टंक ।

४. सुवर्ण । सोना ।

५. सोने का बरतन ।

६. हीरा ।

७. निर्गम । बाहर जाना । प्रस्थान (को॰) ।

८. चांडाल (को॰) ।

८. सोने की एक तौल जो १०८ या १५० सुवर्ण की होती थी (को॰) ।

९. गले में पहनने का एक स्वर्णा- भूषण (को॰) । यौ॰—निष्ककंठ, निष्कग्रीव = जिसने गले में सोने का गहना पहन रखा हो ।