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न्याय

विक्षनरी से

प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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न्याय संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. उचित बात । नियम के अनुकूल बात । हक बात । नीति । इसाफ । जैसे,—(क) न्याय तो यही है कि तुम उसका रुपया फेर दो । (ख) अपराध कोई करे और दंड कोई पावे यह कहाँ का न्याय है ।

२. सदसद्धिवेक । दो पक्षों के बीच निर्णय । प्रमाणपूर्वक निश्चय । विवाद या व्यवहार में उचित अनुचित का निबटेरा । किसी मामले मुकदमें में दोषी और निर्दोष, अधिकारी और अनधिकारी आदि का निर्धारण । जैसे,—(क) राजा अच्छा न्याय करता है । (ख) इस अदालत में ठीक न्याय नहीं होता । यौ॰— न्यायसभा । न्यायालय ।

३. वह शास्त्र जिसमें किसी वस्तु के यथार्थ ज्ञान के लिये विचारों की उचित योजना का निरुपण होता है । विवेचनपद्धति । प्रमाण, दृष्टांत, तर्क आदि से युक्त वाक्य । विशेष— न्याय छह दर्शनों में है । इसके प्रवर्तक गौतम ऋषि मिथिला के निवासी कहे जाते हैं । गौतम के न्यायसूत्र अबतक प्रसिद्ध हैं । इन सुत्रों पर वात्स्यायन मुनि का भाष्य है । इस भाष्य पर उद्योतकर ने वार्तिक लिखा है । वार्तिक की व्याख्या वाचस्पति मिश्र ने 'न्यायवार्तिक तात्पर्य ठीका' के नाम से लिखी है । इस टीका की भी टोका उदयनाचार्य कृत 'ताप्तर्य- परिशुद्धि' है । इस परिशुद्धि पर वर्धमान उपाध्याय कृत 'प्रकाश' है । गौतम का न्याय केवल प्रमाण तर्क आदि के नियम निश्चित करनेवाला शास्त्र नहीं है बल्कि आत्मा, इंद्रिय, पुनर्जन्म, दुःख अपवर्ग आदि विशिष्ट प्रमेयों का विचार करनेवाला दर्शन है । गौतम ने सोलह पदार्थों का विचार किया है और उनके सम्यक् ज्ञान द्वारा अपवर्ग या मोक्ष की प्राप्ति कही है । सोलह पदार्थ या विषय में हैं ।—प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टांत, सिद्धांत, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितंडा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान । इन विषयों पर विचार किसी मध्यस्थ के सामने बादी प्रतिवादी के कथोपकथन के रुप में कराया गया है । किसी विषय में विवाद उपस्थित होने पर पहले इसका निर्णय आवश्यक होता है कि दोनों वादियों के कौन कौन प्रमाण माने जायँगे । इससे पहले 'प्रमाण' लिया गया है । इसके उपरांत विवाद का विषय अर्थात् 'प्रमेय' का विचार हुआ है । विषय सूचित हो जाने पर मध्यस्त के चित्त में संदेह उत्पन्न होगा कि उसका यथार्थ स्वरुप क्या है । उसी का विचार 'संशय' या 'संदेह' पदार्थ के के नाम से हुआ है । संदेह के उपरंत मध्यस्थ के चित्त में यह विचार हो सकता है कि इस विषय के विचार से क्या मतलब । यही 'प्रयोजन' हुआ । वादी संदिग्ध विषय पर अपना पक्ष दृष्टांत दिखाकर बदलाता है, वही 'दृष्टांत' पदार्थ है । जिस पक्ष को वादी पुष्ट करके बतलाता है वह उसका 'सिद्धांत' हुआ । वादी का पक्ष सूचित होने पर पक्षसाधन की जो जो युक्तियाँ कही गई हैं प्रतिवादी उनके खँड खँड करके उनके खंडन में प्रवृत्त होता है । युक्तियों की खंडित देख वादी फिर से और युक्तियाँ देता है जिनसे प्रतिवादी की युक्तियों का उत्तर हो जाता है । यही 'तर्क' कहा गया है । तर्क द्वारा पंचावयवयुक्त युक्तियों का कथन 'वाद' कहा गया है । वाद या शास्त्रार्थ द्वारा स्थिर सत्य पक्ष को न मानकर यदि प्रतिवादी जीत की इच्छा से अपनी चतुराई के बल से व्यर्थ उत्तर प्रत्युत्तर करता चला जाता है तो वह 'अल्प' कहलाता है । इस प्रकार प्रतिवादी कुछ काल तक तो कुछ अच्छी युक्तियाँ देता जायगा फिर ऊटपटाँग बकने लगेगा जिसे 'वितंडा' कहते हैं । इस वितंडा में जितने हेतु दिए जायँगे वे ठीक न होंगे, वे 'हेत्वाभास' मात्र होंगे । उन हेतुओं और युक्तियों के अतिरिक्त जान बूझकर वादी को घबराने के लिये उसके वाक्यों का ऊटपटाँग अर्थ करके यदि घबराने के लिये उसके वाक्यों का ऊटपटाँग अर्थ करके यदि प्रतिवादी गड़बड़ डालना चाहता है तो वह उसका 'छल' कहलाता है, और यदि व्याप्तिनिरपेक्ष साधर्म्य वैधर्म्य आदि के सहारे अपना पक्ष स्थापित करने लगता है तो वह 'जाति' में आ जाता है । इस प्रकार होते होते जब शास्त्रार्थ में यह अवस्था आ जाती है कि अब प्रतिवादी को रोककर शास्त्रार्थ बंद किया जाय तब 'निग्रहस्थान' कहा जाता है । (विवरण प्रत्येक शब्द के अंतर्गत देखी) ।

न्याय का मुख्य विषय है प्रमाण । 'प्रमा' नाम है यथार्थ ज्ञान का । यथार्थ ज्ञान का जो करण हो अर्थात् जिसके द्वारा यथार्थ ज्ञान हो उसे प्रमाण कहते हैं । गौतम ने चार प्रमाण माने हैं—प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द । इनमें से आत्मा, मन और इंद्रिय का संयोग रुप जो ज्ञान का करण वा प्रमाण है वही प्रत्यक्ष है । वस्तु के साथ इंद्रिय- संयोग होने से जो उसका ज्ञान होता है उसी को 'प्रत्यक्ष' कहते हैं । प्रत्यक्ष को लेकर जो ज्ञान (तथा ज्ञान के कारण) को अनुमान कहते हैं । जैसे, हमने बराबर देखा है कि जहाँ धुआँ रहता है वहाँ आग रहती है । इसी को नैयायिक व्याप्ति ज्ञान कहते हैं जो अनुमान की पहली सीढी़ है । हमने कहीं धूआँ देखा जो आग कि जिस धूएँ के साथ सदा हमने आग देखी है वह यहाँ हैं । इसके अनंतर हमें यह ज्ञान या अनुमान उत्पन्न हुआ कि 'यहाँ आग है' । अपने समझने के लिये तो उपयुक्त तीन खंड काफी है पर नैयायिकों का कार्य है दूसरे के मन में ज्ञान कराना, इससे वे अनुमान के पाँच खंड करते हैं जो 'अवयव' कहलाते हैं । (१) प्रतिरा—साध्य का निर्देश करनेवाला अर्थात् अनुमान से जो बात सिद्ध करना है उसका वर्णन करनेवाला वाक्य, जैसे, यहाँ पर आग है । (२) हैतु—जिस लक्षण या चिह्न से बात प्रमाणित की जाती है, जैसे, क्योंकि यहाँ धूआँ है । (३) उदाहरण—सिद्ध की जानेवाली वस्तु बतलाए हुए चिह्न के साथ जहाँ देखी गई है उसा बतानेवाला वाक्य । जैसे,— जहाँ जहाँ धूआँ रहता है वहाँ वहाँ आग रहती है, जैसे 'रसोईघर में' । (४)उपनय—जो वाक्य बतलाए हुए चिह्न या लिंग का होना प्रकट करे, जैसे, 'यहाँ पर धूआँ है' । (५) निगमन—सिद्ध की जानेवाली बात सिद्ध हो गई यह कथन । अतः अनुमान का पूरा रुप यों हुआ— यहाँ पर आग है (प्रतिज्ञा) । क्योकि यहाँ धूआँ है (हेतु) । जहाँ जहाँ धूआँ रहता है वहाँ वहाँ आग रहती है, 'जैसे रसोई घर में' (उदारहण) । यहाँ पर धूआँ है (उपनय) । इसीलिये यहाँ पर आग है (निगमन) । साधारणतः इन पाँच अवयवों से युक्त वाक्य को न्याय कहते हैं । नवीन नैयायिक इन पाँचों अवयवों का मानना आवश्यक नहीं समझते । वे प्रमाण के लिये प्रतिज्ञा, हेतु और दृष्टांत इन्हीं तीनों को काफी समझते हैं । मीमांसक और वेदांती भी इन्हीं तीनों को मानते हैं । बौद्ध नैयायिक दो ही मानते हैं, प्रतिज्ञा और हेतु । दुष्ट हेतु को हेत्वाभास कहते हैं पर इसका प्रमाण गौतम ने प्रमाण के अंतर्गत न करे इसे अलग पदार्थ (विषय) मानकर किया है । इसी प्रकार छल, जाति, निग्रहस्थान इत्यादि भई वास्तव में हेतुदोष ही कहे जा सकते हैं । केवल हेतु का अच्छी तरह विचार करने से अनुमान के सब देश पकडे़ जा सकते हैं और यह मालूम हो सकता है कि अनुमान ठीक है या नहीं । गौतम का तीसरा प्रमाण 'उपमान' है । किसी जानी हुई वस्तु के सादृश्य से न जानी हुई वस्तु का ज्ञान जिस प्रमाण से होता है वही उपमान है । जैसे, नीलगाय गाय के सदृश होती है । किसी के मुँह से यह सुनकर जब हम जंगल में नीलगाय देखते हैं तब चट हमें ज्ञान हो जाता है कि 'यह नीलगाय है' । इससे प्रतीत हुआ कि किसी वस्तु का उसके नाम के साथ संबंध ही उपमिति ज्ञान का विषय है । वैशेषिक और बौद्ध नैयायिक उपमान को अलग प्रमाण नहीं मानते, प्रत्यक्ष और शब्द प्रमाण के ही अंतर्गत मानते हैं । वे कहते हैं कि 'गो के सदृश गवय होता है' यह शब्द या आगम ज्ञान है क्योंकि यह आप्त या विश्वासपात्र मनुष्य कै कहे हुए शब्द द्वारा हुआ फिर इसके उपरांत यह ज्ञान क्रि 'यह जंतु जो हम देखते हैं गो के सदृश है' यह प्रत्यक्ष ज्ञान हुआ । इसका उत्तर नैयायिक यह देते हैं कि यहाँ तक का ज्ञान तो शब्द और प्रत्यक्ष ही हुआ पर इसके अनंतर जो यह ज्ञान होता है कि 'इसी जंतु का नाम गवय है' वह न प्रत्यक्ष है, न अनुमान, न शब्द, वह उपमान ही है । उपमान को कई नए दार्शनिकों ने इस प्रकार अनुमान कै अंतर्गत किया है । वे कहते हैं कि 'इस जंतु का नाम गवय हैं', 'क्योंकि यह गो के सदृश है' जो जो जंतु गो के सदृश होते है उनका नाम गवय होता है । पर इसका उत्तर यह है कि 'जो जो जंतु गो के सदृश्य होते हैं वे गवय हैं' यह बात मन में नहीं आती, मन में केवल इतना ही आता हैं कि 'मैंने अच्छे आदमी के मुँह से सुना है कि गवय गाय के सदृश होता है ?' चौथा प्रमाण है शब्द । सूत्र में लिखा है कि आप्तोपदेश अर्थात आप्त पुरुष का वाक्य शब्दप्रमाण है । भाष्यकार ने आप्तपुरुष का लक्षण यह बतलाया है कि जो साक्षात्कृतधर्मा हो, जैसा देखा सुना (अनुभव किया) हो ठीक ठीक वैसा ही कहनेवाला हो, वही आप्त है, चाहे वह आर्य हो या म्लेच्छ । गौतम ने आप्तोपदेश के दो भेद किए हैं— दृष्टार्थ और अदृष्टार्थ । प्रत्यक्ष जानी हुई बातों को बतानेवाला दृष्टार्थ और केवल अनुमान से जानी जानेवाली बातों (जैसे स्वर्ग, अपवर्ग, पुनर्जन्न इत्यादि) को बतानेवाला अदृष्टार्थ कहलाता है । इसपर भाष्य करते हुए वात्स्यान ने कहा है कि इस प्रकार लौकिक और ऋषि— वाक्य (वैदिक) का विभाग हो जाता है अर्थात् अदृष्टार्थ मे केवल वेदवाक्य ही प्रमाण कोटि में माना जा सकता है । नैयायिकों के मत से वेद ईश्वरकृत है इससे उसके वाक्य सद ा सत्य और विश्वसनीय हैं पर लौकिक वाक्य तभी सत्य माने जा सकते हैं । जब उनका कहनेवाला प्रामाणिक माना जाय । सूत्रों में वेद के प्रामाण्य के विषय में कई शंकाएँ उठाकर उनाक समाधान किया गया है । मीमांसक ईश्वर नहीं मानते पर वे भी वेद को अपौरुषेय और नित्य मानते हैं । नित्य तो मीमांसक शब्द मात्र को मानते हैं और शब्द और अर्थ का नित्य संबंध बतलाते हैं । पर नैयायिक शब्द का अर्थ के साथ कोई नित्य संबंध नहीं मानते । वाक्य का अर्थ क्या है, इस विषय में बहुत मतभेद है । मीमांसकों के मत से नियोग या प्रेरणा ही वाक्यार्थ है—अर्थात् 'ऐसा करो', 'ऐसा न करो' यही बात सब वाक्यों से कही जाती है चाहे साफ साफ चाहे ऐसे अर्थवाले दूसरे वाक्यों से संबंध द्वारा । पर नैयायिकों के मत से कई पदों के संबंध से निकलनेवाला अर्थ ही वाक्यार्थ है । परंतु वाक्य में जो पद होते हैं वाक्यार्थ के मूल कारण वे ही हैं । न्यायमंजरी में पदों में दो प्रकार की शक्ति मानी गई है—प्रथम अभिधात्री शक्ति जिससे एक एक पद अपने अपने अर्थ का बोध कराता है और दूसरी तात्पर्य शक्ति जिससे कई पदों के संबंध का अर्थ सूचित होता है । शक्ति के अतिरिक्त लक्षणा भी नैयायिकों ने मानी है । आलंकारिकों ने तीसरी वृत्ति व्यंजना भी मानी है पर नैयायिक उसे पृथक् वृत्ति नहीं मानते । सूत्र के अनुसार जिन कई अक्षरों के अंत में विभक्ति हो वे हो पद हैं और विभक्तियाँ दो प्रकार की होती हैं—नाम विभक्ति और आख्यात विभक्ति । इस प्रकार नैयायिक नाम और आख्यात दो ही प्रकार के पद मानते हैं । अव्यय पद को भाष्यकार ने नाम के ही अंतर्गत सिद्ध किया है । न्याय में ऊपर लिखे चार ही प्रमाण माने गए हैं । मीमांसक और वेदांती अर्थापत्ति, ऐतिह्य, संभव और अभाव ये चार और प्रमाण कहते हैं । नैयायिक इन चारों को अपने चार प्रमाणों के अंतर्गत मानेत हैं । ऊपर के विवरण से स्पष्ट हो गया होगा कि प्रमाण ही न्यायशास्त्र का मुख्य विषय है । इसी से 'प्रमाणप्रवीण', 'प्रमाणकुशल आदि शब्दों का व्यवहार नैयायिक या तार्किक के लिये होता है । प्रमाण अर्थात् किसी बात को सिद्ध करने के विधान का ऊपर उल्लेख हो चुका । अब उक्त विधान के अनुसार किन किन वस्तुओं का विचार और निर्णय न्याय में हुआ है, इसका संक्षेप में कुछ विवरण दिया जाता है । ऐसे विषय न्याय में प्रमेय (जो प्रमाणित किया जाय) पदार्थ के अंतर्गत हैं और बारह गिनाए गए हैं— (१) आत्मा—सब वस्तुओं का देखनेवाला, भोग करनेवाला, जाननेवाला और अनुभव करनेवाला । (२) शरीर—भोगो का आयतन या आधार । (३) इंद्रियाँ—भोगों के साधन । (४) अर्थ—वस्तु जिसका भोग होता है । (५) बुद्धि—भोग । (६) मन—अंतःकरण अर्थात् वह भीतरी इंद्रिय जिसके द्वारा सब वस्तुओं का ज्ञान होता है । (७) प्रवृत्ति—वचन, मन और शरीर का व्यापार । (८) दोष—जिसके कारण अच्छे या बुरे कामों में प्रवृत्ति होती है । (९) प्रेत्यभाव—पुनर्जन्म । (१०) फल—सुख दुःख का संवेदन या अनुभव । (११) दुःख—पीडा़, क्लेश । (१२) अपवर्ग—दुःख से अत्यंत निवृत्ति या मुक्ति । इस सूची से यह न समझना चाहिए कि इन वस्तुओं के अतिरिक्त और प्रमाण के विषय या प्रमेय हो ही नहीं सकते । प्रमाण के द्वारा बहुत सी बातें सिद्ध की जाती हैं । पर गौतम ने अपने सूत्रों में उन्हीं बातों पर विचार किया है जिनके ज्ञान से अपवर्ग या मोक्ष की प्राप्ति हो । न्याय में इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख दुःख और ज्ञान ये आत्मा के लिंग (अनुमान के साधन चिह्न या हेतु) कहे गए हैं, यद्यपि शरीर, इंद्रिय और मन से आत्मा पृथक् मानी गई है । वैशेषिक में भी इच्छा, द्वेष सुख, दुःख आदि को आत्मा का लिंग कहा है । शरीर, इंद्रिय और मन से आत्मा के पृथक् होने के हेतु गौतम ने दिए हैं । वेदांतियों के समान नैयायिक एक ही आत्मा नहीं मानते, अनेक मानते हैं । सांख्यवाले भी अनेक पुरुष मानते हैं पर वे पुरुष को अकर्ता और अभोक्ता, साक्षी वा द्रष्टा मात्र मानते हैं । नैयायिक आत्मा को कर्ता, भोक्ता आदि मानते हैं । संसार को रचनेवाली आत्मा ही ईश्वर है । न्याय में आत्मा के समान ही ईश्वर में भी संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, इच्छा, बुद्धि प्रयत्न ये गुण माने गए हैं पर नित्य करके । न्यायमंजरी में लिखा है कि दुःख, द्वेष और संस्कार को छोड़ और सब आत्मा के गुण ईश्वर में हैं । बहुत से लोग शरीर को पाँचों भूतों से बना मानते हैं पर न्याय में शरीर केवल पृथ्वी के परमाणुओं से घटित माना गया है । चेष्टा, इंद्रिय और अर्थ के आश्रय को शरीर कहते हैं । जिस पदार्थ से सुख हो उसके पाने और जिससे दुःख हो उसे दूर करने का व्यापार चेष्टा है । अतः शरीर का जो लक्षण किया गया है उसके अंतर्गत वृक्षों का शरीर भी आ जाता है । पर वाचस्पति मिश्र ने कहा है कि यह लक्षण वृक्षशरीर में नहीं घटता, इससे केवल मनुष्यशरीर का ही अभिप्राय समझना चाहिए । शंकर मिश्र ने वैशेषिक सूत्रोपस्कार में कहा है कि वृक्षों को शरीर है पर उसमें चेष्टा और इंद्रियाँ स्पष्ट नहीं दिखाई पड़तीं इससे उसे शरीर नहीं कह सकते । पूर्वजन्म में किए कर्मों के अनुसार शरीर उत्पन्न होता है । पाँच भूतों से पाँचों इंद्रियों की उत्पत्ति कही गई है । घ्राणेंद्रिय से गंध का ग्रहण होता है, इससे वह पृथ्वी से बनी है । रसना जल से बनी है क्योकि रस जल का ही गुण है । चक्षु तेज से बना हैं क्योकि रूप तेज का ही गुण है । त्वक् वायु से बना है क्योंकि स्पर्श वायु का गुण है । श्रोत्र आकाश से बना है क्योंकि शब्द आकाश का गुण है । बौद्धों के मत से शरीर में इंद्रियों के जो प्रत्यक्ष गोलक देखे जाते हैं उन्हीं को इंद्रियाँ कहते हैं । (जैसे, आँख की पुतली, जीभ इत्यादि); पर नैयायिकों के मत से जो अंग दिखाई पड़ते हैं वे इंद्रियों के अधिष्ठान मात्र हैं, इंद्रियाँ नहीं हैं । इंद्रियो ं का ज्ञान इँद्रियों द्वारा नहीं हो सकता । कुछ लोग एक ही त्वग् इंद्रिय मानते हैं । न्याय में उनके मत का खंडन करके इंद्रियों का नानात्व स्थापित किया गया है । सांख्य में पाँच कर्मेद्रियाँ और मन लेकर ग्यारह इंद्रियाँ मानी गई हैं । न्याय में कर्मेंद्रियाँ नहीं मानी गई हैं पर मन एक करण और अणुरूप माना गया है । यदि मन सूक्ष्म न होकर व्यापक होता तो युगपद ज्ञान संभव होता, अर्थात् अनेक इंद्रियों का एक क्षण में एक साथ संयोग होने से उन सबके विषयों का एक साथ ज्ञान होता । पर नैयायिक ऐसा नहीं मानते । गंध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द ये पाँचों भूतों के गुण और इंद्रियों के अर्थ या विषय़ हैं । न्याय में बुद्धि को ज्ञान या उपलब्धि का ही दूसरा नाम कहा है । सांख्य में बुद्धि नित्य कही गई है पर न्याय में अनित्य । वैशेषिक के समान न्याय भी परमाणुवादी है अर्थात् परमा- णुओं के योग से सृष्टि मानता है । प्रमेयों के संबंध में न्याय और वैशेषिक के मत प्रायः एक ही हैं इससे दर्शन में दोनों के मत न्याय मत कहे जाते हैं । वात्स्यायन ने भी भाष्य में कह दिया है कि जिन बातों को विस्तार भय से गौतम ने सूत्रों में नहीं कहा है उन्हें वैशेषिक से ग्रहण करना चाहिए । ऊपर जो कुछ लिखा गया है उससे प्रकट हो गया होगा कि गौतम का न्याय केवल विचार या तर्क के नियम निर्धारित करनेवाला शास्त्र नहीं है बल्कि प्रमेयों का विचार करनेवाला दर्शन है । पाश्चात्य लाजिक (तर्कशास्त्र) से यही इसमें भेद हैं । लाजिक दर्शन के अंतर्गत नहीं लिया जाता पर न्याय दर्शन है । यह अवश्य है कि न्याय में प्रमाण या तर्क की परीक्षा विशेष रूप से हुई है । न्यायशास्त्र का भारतवर्ष में कब प्रादुर्भाव हुआ ठीक नहीं कहा जा सकता । नैयायिकों में जो प्रवाद प्रचलित हैं उनके अनुसार गौतम वेदव्यास के समकालीन ठहरते हैं; पर इसका कोई प्रमाण नहीं है । 'आन्वीक्षिकी' 'तर्कविद्या' 'हेतुवाद' का निदापूर्वक उल्लेख रामायण और महाभारत में मिलता है । रामायण में तो नैयायिक शब्द भी अयोध्याकांड में आया है । पाणिनि ने न्याय से नैयायिक शब्द बनने का निर्देश किया है न्याय के प्रादुर्भाव के संबंध में साधारणतः दो प्रकार के मत पाए जाते हैं । कुछ पाश्चात्य विद्वानों की धारणा है कि बौद्ध धर्म का प्रचार होने पर उसके खंडत के लिये ही इस शास्त्र का अभ्युदय हुआ । पर कुछ एतद्देशीय विद्वानों का मत हे कि वैदिक वाक्यों के परस्पर समन्वय और समाधान के लिये जैमिनि ने पूर्वमीमांसा में जिन युक्तियों और तर्कों का ब्यवहार किया वे ही पहले न्याय के नाम से कहे जाते थे । आपस्तंब धर्मसूत्र में जो न्याय शब्द आया है उसका पूर्वमी- मांसा से ही अभिप्राय समझना चाहिए । माधवाचार्य ने पूर्वमीमांसा का जो सारसंग्रह लिखा उसका नाम न्यायमाला- विस्तार रखा । वाचस्पति मिश्र ने भी 'न्यायकणिका' के नाम से मीमांसा पर एक ग्रंथ लिखा है । पर न्याय के प्राचीनत्व से वंग देश का गौरव समझनेवाले कुछ बंगाली पंडितों का कथन है कि न्याय ही सब दर्शनों में प्राचीन है क्योंकि और सब दर्शनसूत्रों में दूसरे दर्शनों का उल्लेख मिलता है पर न्यायसूत्रों में कहीं किसी दूसरे दर्शन का नाम नहीं आया है । यद्यपि यह नहीं कहा जा सकता कि न्याय सब दर्शनों में प्राचीन है, पर इतना अवश्य कह सकते हैं कि तर्क के नियम बौद्ध धर्म के प्रचार से बहुत पूर्व प्रचलित थे, चाहे वे मीमांसा के रहे हों या स्वतंत्र । हेमचंद्र ने न्यायसूत्रों पर भाष्य रचनेवाले वात्स्यायन और चाणक्य को एक ही व्यक्ति माना है । यदि यह ठीक हो तो भाष्य ही बौद्ध-धर्म-प्रचार के पूर्व का ठहरता है । क्योंकि बौद्ध धर्म का प्रचार अशोक के समय से और बौद्ध न्याय का आविर्भाव अशोक के भी पीछे महायान शाखा स्थापित होने पर हुआ । पर वात्स्यायन और चाणक्य का एक होना हेमचँद्र के श्लोक (जिसमें चाणक्य के आठ नाम गिनाए गए है) के आधार पर ही ठीक नहीं माना जा सकता । कुछ विद्वानों का कथन है कि वात्स्यायन ईसा की पाँचवीं शताब्दी में हुए । ईसा की छठी शताब्दी में वासवद- त्ताकार सुबंधु ने मल्लनाग, न्यायस्थिति, धर्मकीर्ति और उद्योतकर इन चार नैयायिकों का उल्लेख किया है । इनमें धर्मकीर्ति प्रसिद्ध बौद्ध नैयायिक थे । उद्योतकराचार्य ने प्रसिद्ध बौद्ध नैयायिक दिड्रनागाचार्य के 'प्रमाणसमुच्चय' नामक ग्रंथ का खंडन करके वात्स्यायन का मत स्थापित किया । 'प्रमाणसमुच्चय' में दिड्नाग ने वात्स्यायन के मत का खंडन किया था । इससे यह निश्चित है कि वात्स्यायन दिङ्नाग के पुर्व हुए । मल्लिनाथ ने दिङ्नाग को कालिदास का समकालीन बतलाया है, पर कुछ लोग इसे ठीक नहीं मानते और दिङ्नाग का काल ईसा की तीसरी शताब्दी कहते हैं । सुबंधु के उल्लेख से दिङ्नागाचार्य का ही काल छठी शताब्दी के पूर्व ठहरता है अतः वात्स्यायन को जो उनसे भी पूर्व हुए पाँचवीं शताब्दी में मानना ठीक नहीं । वे उससे पहले हुए होंगे । वात्स्यायन ने दशावयवादी नैयायिकों का उल्लेख किया है, इससे सिद्ध है कि उनके पहले से भाष्यकार नैयायिकों की परंपरा चली आती थी । अस्तु, सूत्रों की रचना का काल बौद्ध धर्म के प्रचार के पूर्व मानना पड़ता है । वैदिक, बौद्ध और जैन नैयायिकों के बीच विवाद ईसा की पाँचवीं शताब्दी से लेकर १३ वीं शताब्दी तक बराबर चलता रहा । इससे खंडन मंडन के बहुत से ग्रंथ बने । १४ वीं शताब्दी में गंगेशोपाध्याय हुए जिन्होंने 'नव्यन्याय' की नींव डाली । प्राचीन न्याय में प्रमेय आदि जो सोलह पदार्थ थे उनमें से और सबको किनारे करके केवल 'प्रमाण' को लेकर ही भारी शब्दाडंबर खडा किया गया । इस नव्यन्याय का आविर्भाव मिथिला में हुआ । मिथिला से नदिया में जाकर नव्यन्याय ने और भी भयंकर रूप धारण किया । न उसमें तत्वनिर्णय रहा, न तत्वनिर्णय की सामर्थ्य ।

४. दृष्टांत वाक्य जिसका व्यवहार लोक में कोई प्रसंग आ पडने पर होता है । कोई विलक्षण घटना सूचित करनेवाली उक्ति जो उपस्थित बात पर घटती हो । कहावत । ऐसे न्याय या दृष्टांत वाक्य बहुत से प्रचलित चले आते हैं जिनमें स कुछ अकारादि क्रम से दिए जाते हैं— (१) अजाकृपाणीय न्याय—कहीं तलवार लटकती थी, नीचे से बकरा गया और वह संयोग से उसकी गर्दन पर गिर पडी़ । जहाँ दैवसंयोग से कोई विपत्ति आ पड़ती है वहाँ इसका व्यवहार होता है । (२) अजातपुत्रनामोत्कीर्तन न्याय—अर्थात् पुत्र न होने पर भी नामकरण होने का न्याय । जहाँ कोई बात होने पर भी आशा के सहारे लोग अनेक प्रकार के आयोजन बाँधने लगते हैं वहाँ यह कहा जाता है । (३) अध्यारोप न्याय—जो वस्तु जैसी न हो उसमें वैसे होने का (जैसे रज्जु मे सर्प हीने का) आरोप । वेदांत की पुस्तकों में इसका व्यवहार मिलता है । (४) अंधकूपपतन न्याय—किसी भले आदमी ने अंधे को रास्ता बतला दिया और वह चला, पर जाते जाते कूएँ में गिर पडा़ । जब किसी अनधिकारी को कोई उपदेश दिया जाता है और वह उसपर चलकर अपने अज्ञान आदि के कारण चूक जाता है या अपनी हानि कर बैठता है तब यह कहा जाता है । (५) अंधगज न्याय—कई जन्मांधों ने हाथी कैसा होता है यह देखने के लिये हाथी को टठोला । जिसने जो अंग टटोल पाया उसने हाथी का आकार उसी अंग का सा समझा । जिसने पूँछ टटोली उसने रस्सी के आकार का, जिसने पैर टटोला उसने खंभे के आकार रस्सी के आकार का, जिसने पैर टटोला उसने खंभे के आकार का समझा । किसी विषय के पुर्ण अंग का ज्ञान न होने पर उसके संबंध में जब अपनी अपनी समझ के अनुसार भिन्न भिन्न बाते कही जाती हैं तब इस उक्ति का प्रयोग करते हैं । (६) अंधगोलांगूल न्याय—एक अंधा अपने घर के रास्ते से भटक गया था । किसी ने उसके हाथ में गाय की पूँछ पकडा़कर कह दिया कि यह तुम्हें तुम्हारे स्थान पर पहुँचा देगी । गाय के इधर उधर दौड़ने से अंधा अपने घर तो पहुँचा नहीं, कष्ट उसने भले ही पाया । किसी दुष्ट या मूर्ख के उपदेश पर काम करके जब कोई कष्ट या दुःख उठाता है तब यह कहा जाता है । (७) अंधचटक न्याय—अंधे के हाथ बटेर । (८) अंधपरंपरा न्याय—जब कोई पुरुष किसी को कोई काम करते देखकर आप भी वही काम करने लगे तब वहाँ यह कहा जाता है । (९) अंधपंगु न्याय—एक ही स्थान पर जानेवाला एक अंधा और एक लँगडा़ यदि मिल जायँ तो एक दुसरे की सहायता से दोनों वहाँ पहुँच सकते हैं । सांख्य में जड़ प्रकृति और चेतन पुरुष के संयोग से सृष्टि होने के दृष्टांत में यह उक्ति कही गई है । (१०) अपवाद न्याय—जिस प्रकार किसी वस्तु के संबंध में ज्ञान हो जाने से भ्रम नहीं रह जाता उसी प्रकार । (वेदांत) । (११) अपराह्नच्छाया न्याय— जिस प्रकार दोपहर की छाया बराबर बढती जाती है उसी प्रकार सज्जनों की प्रीति आदि के संबंध में यह न्याय कहा जाता है । (१२) अपसारिताग्रिभूतल न्याय— जमीन पर से आग हटा लेने पर भी जिस प्रकार कुछ देर तक जमीन गरम रहतौ है उसी प्रकार धनी धन के न रह जाने पर भी कृछ दिनों तक अपनी अकड रखता है । (१३) अरण्यरोदन न्याय— जंगल में रोने के समान बात । जहाँ कहने पर कोई ध्यान देनेवाला न हो वहाँ इसका प्रयोग होता है । (१४) अर्कमधु न्याय— यदि मदार से ही मधु मिल जाय तो उसके लिये अधिक परिश्रम व्यर्थ है । जो कार्य सहज में हो उसके लिये इधर उधर वहूत श्रम करने की आवश्यकता नहीं । (१५) अर्द्धजरतीय न्याय— एर ब्राह्मण देवता अर्थकष्ट से दुःख हो नित्य अपनी गाय लेकर बाजार में बेचने जाते पर वह न बिकती । बात यह थई कि अवस्था पूछने पर वे उसकी बहुत अवस्था बतलाते थे । एक दिन एक आदमी ने उनेस न बिकने का कारण पूछा । ब्राह्णण ने कहा जिस प्रकार आदमी की अवस्था अधिक होने पर उसकी कदर बढ जाती है उसी प्रकार मैंने गाय के संबंध में भी समझा था । उसने आगे ऐसा न कहने की सलाह दी । ब्राह्मण ने कोचा कि एक बार गाय को बुड्ढी कहकर अब फिर जवान कैसे कहूँ । अंत में उन्होंने स्थिर किया कि आत्मा तो बुड्ढी होती नही देह बुड्ढी होती है । अतः इसे मैं 'आधी बुड्ढी आधी जवान' कहूँगा । जब किसी की कोई बात इस पक्ष में भई और उस पक्ष में भी हो तब यह उक्ति कही जाती है । (१६) अशोकवनिका न्याय— अशोक बन में जाने के समान (जहाँ छाया सौरम आदि सब कुछ प्राप्त हो) । चब किसी एक ही स्थान परसब कुछ प्राप्त हो लाय और कहीं जाने की आवश्यकता न हो तब यह कहा जाता है । (१७) अश्मलोष्ट न्याय— अर्थात् तराजू पर रखने के लिये पत्थर तो ढेले से भी भारी है । यह विषमता सूचित करने के अवसर पर ही कहा जाता है । जहाँ दो वस्तुओं में सापेक्षिकता सूचित करनी होती है । वहाँ 'पाषाणेष्टिक न्याय' कह जाता है । (१८) अस्नेहदीप न्याय— बिना तेल के दीये की सी बात । थोडे ही काल रहनेवाली बात देखकर यड कहा जाता है । (१९) अस्नेहदप न्याय— साँप के कुंडल मारकर बैठने के समान । किसी स्बाभाविक बात पर । (२०) अहि नकुल न्याय— साँप नेवले के समान । स्वाभाविक विरोध या बैर सूचित करने के लिये । (२१) आकाशापरिच्छिन्नत्व न्याय— आकाश के समान अपरिच्छिन्न । (२२) आभ्राणक न्याय—लोकप्रवाद के समान । (२३) आम्रवण न्याय—जिस प्रकार किसी वन में यदि आम के पेड़ अधिक होते हैं तो उसे 'आम का वन' ही कहते हैं, यद्यपि और भी पेड़ उस वन में रहते हैं, उसी प्रकार जहाँ औरों को छोड़ प्रधान वस्तु का ही उल्लेख किया जाता है वहाँ यह उक्ति कही जाती है । (२४) उत्पाटितदतनाग न्याय—दाँत तोडे़ हुए साँप के समान । कुछ करने धरने या हानि पहुँचाने में असमर्थ हुए मनुष्य के संबंध में । (२५) उदकनिमज्जन न्याय—कोई दोषी है या निर्दोष इसकी एक दिव्य परीक्षा प्राचीन काल में प्रचलित थी । दोषी को पानी में खडा़ करके किसी ओर बाणा छोड़ते थे और बाण छोड़ने के साथ ही अभियुक्त को तबतक डूवे रहने के लिये कहते थे जबतक वह छोडा़ हुआ बाण वहाँ से फिर छूटने पर लौट न आवे । यदि इतने बीच में डूबनेवाले का कोई अंग बाहर न दिखाई पडा़ तो उसे निर्देष समझते थे । जाहाँ सत्या- स्तय की बात आती है वहाँ यह न्याय कहा जाता है । (२६) उभयतः पाशरज्जु न्याय—जहाँ दोनों ओर विपत्ति हो अर्थात् दो कर्तव्यपक्षों में से प्रत्येक में दुःख हो वहाँ इसका व्यवहार होता है । 'साँप छछूँदर की गति' । (२७) उष्टूकंटक भक्षण न्याय—जिस प्रकार थोडे़ से सुख के लिये ऊँट काँटे खाने का कष्ट उठाता है उसी प्रकार जहाँ थोडे़ से सुख के लिये अधिक कष्ट उठाया जाता है वहाँ यह कहावत कही जाती है । (२८) ऊपरवृष्टि न्याय—किसी बात का जहाँ कोई फल न हो वहाँ कहा जाता है । (२९) कंठचामीकर न्याय—गले में सोने का हार हो और उसे इधर उधर ढूढ़ँता फिरे । आनंदस्वरूप ब्रह्म के अपने में रहते भी अज्ञानवश सुख के लिये अनेक प्रकार के दुःख भोगने के दृष्टांत में वेदांती कहते हैं । (३०) कदंबगोलक न्याय—जिस प्रकार कदंब के गोले में सब फूल एक साथ हो जाते हैं, उसी प्रकार जहाँ कई बातें एक साथ हो जाती हैं वहाँ इसे कहते हैं । कुछ नैयायिक शब्दो- त्पत्ति में कई वर्णों के उच्चारण एक साथ मानकर उसके दृष्टांत में यह कहते हैं । यह भी कहते हैं कि जिस प्रकार कदंब में सब तरफ किजल्क होते हैं वैसे सब्द जहाँ उत्पन्न होता है उसके सभी ओर उसकी तरंगों का प्रसार होता है । (३१) कदलीफल न्याय—केला काटने पर ही फलता है इसी प्रकार नीच सीधे कहने से नहीं सुनते । (३२) कफोनिगुड न्याय—सूत न कपास जुलाहों से मटकौवल । (३३) करकंकण न्याय—'कंकण' कहने से ही हाथ के गहने का बोध हो जाता है, 'कर' कहने की आवश्यकता नहीं । पर कर कंकण कहते हैं जिसका अर्थ होता है 'हाथ में पडा़ हुआ कडा़' । इस प्रकार का जहाँ अभिप्राय होता है वहाँ यह न्याय कहा जाता है । (३४) काकतालीय न्याय—किसी ताड़ के पेड़ के नीचे कोई पथिक लेटा था और ऊपर एक कौवा बैठा था । कौवा किसी ओर को उडा़ और उसके उड़ने के साथ ही ताड़ का एक पका हुआ फल नीचे गिरा । यद्यपि फल पककर आपसे आप गिरा था तथापि पथिक ने दोनों बातों को साथ होते देख यही समझा कि कौवे के उड़ने से ही तालफल गिरा । जहाँ दो बातें संयोग से इस प्रकार एक साथ हो जाती हैं वहाँ उनमें परस्पर कोई संबंध न होते दुए भी लोग संबंध समझ लेते हैं । ऐसा संयोग होने पर यह कहावत कही जाती है । (३५) काकदध्युपघातक न्याय—'कौवे से दही बचाना' कहने से जिस प्रकार 'कुत्ते, बिल्ली आदि सब जंतुओं से बचाना' समझ लिया जाता है उसी प्रकार जहाँ किसी वाक्य का अभिप्राय होता है वहाँ यह उक्ति कहीं जाती है । (३६)काकदंतगवेषण न्याय—कौवे का दाँत ढूँढ़ना निष्फल है अतः निष्फल प्रयत्न के संबंध में यह न्याय कहा जाता है । (३७) काकाक्षिगोलक न्याय—कहते हैं, कौवे के एक ही पुतली होती है जो प्रयोजन के अनुसार कभी इस आँख में कभी उस आँख में जाती है । जहाँ एक ही वस्तु दो स्थानों में कार्य करे वहाँ के लिये यह कहावत है । (३८)कारणगुणप्रक्रम न्याय—कारण का गुण कार्य में भी पाया जाता है । जैसे सूत का रूप आदि उससे बुने कपडे़ में । (३९) कुशकाशावलंबन न्याय—जैसे डूबता हुआ आदमी कुश काँस जो कुछ पाता है उसी को सहारे के लिये पकड़ता है, उसी प्रकार जहाँ कोई दृढ़ आधार न मिलने पर लोग इधर उधर की बातों का सहारा लेते हैं वहाँ के लिये यह कहावत है । 'डूबते को तिनके का सहारा' बोलते भी हैं । (४०) कूपखानक न्याय—जैसे कूआँ खोदनेवाले की देह में लगा हुआ कीचड़ उसी कूएँ के जल में साफ हो जाता है उसी प्रकार राम, कृष्ण आदि को भिन्न भिन्न रूपों में समझने से ईश्वर में भेद बुद्धि का जो देष लगता है वह उन्हीं की उपासना द्वारा ही अद्वैतबुद्धि हो जाने पर मिट जाता है । (४१) कूपमंडूक न्याय—समुद्र का मेढक किसी कूएँ में जा पडा़ । कूएँ कै मेढक ने पूछा 'भाई ! तुम्हारा समुद्र कितना बडा़ है ।' उसने कहा 'बहुत बडा़' । कूएँ के मेढक ने पूछा 'इस कूएँ के इतना बडा़' । समुद्र के मेढक ने कहा 'कहाँ कूआँ, कहाँ समुद्र' । समुद्र से बडी़ कोई वस्तु पृथ्वी पर नहीं । इसपर कूएँ का मेढक जो कूएँ से बडी़ कोई वस्तु जानता ही न था बिगड़कर बोला 'तुम झूठे हो, कूएँ से बडी़ कोई वस्तु हो नहीं सकती' । जहाँ परिमित ज्ञान के कारण कोई अपनी जानकारी के ऊपर कोई दूसरी बात मानता ही नहीं वहाँ के लिये यह उक्ति है । (४२) कूर्माग न्याय—जिस प्रकार कछुआ जब चाहता है तब अपने सब अंग भीतर समेट लेता है और जब चाहता है बाहर करता है उसी प्रकार ईश्वर सृष्टि और लय करता है । (४३) कैमुतिक न्याय—जिसने बडे़ बडे़ काम किए उसे कोई छोटा काम करते क्या लगता है । उसी के दृष्टांत के लिये यह उक्ति कही जाती है (४४) कौंडिन्य न्याय—यह अच्छा है पर ऐसा होता तो और भी अच्छा होता । (४५) गजभुक्त कपित्थ न्याय—हाथी कै खाए हुए कैथ के समान ऊपर से देखने में ठीक पर भीतर भीतर निःसार और शून्य । (४६) गडुलिकाप्रवाह न्याय—भेडिया धसान । (४७) गणपति न्याय—एक बार देवताओं में विवाद चला कि सबमें पूज्य कौन है । ब्रह्मा ने कहा जो पृथ्वी की प्रदक्षिणा पहले कर आवे वही श्रेष्ठ समझा जाय । सब देवता अपने अपने वाहनों पर चले । गणेश जी चूहे पर सवार सबके पीछे रहे । इतने में मिले नारद । उन्होंनें गणेश जी को युक्ति बताई कि राम नाम लिखकर उसी की प्रदक्षिणा करके चटपट ब्रह्मा के पास पहुँच जाओ । गणपति ने ऐसा ही किया और देवताओं में वे प्रथम पूज्य हुए । इसी से जहाँ थोडी़ सी युक्ति से बडी़ भारी बात हो जाय वहाँ इसका प्रयोग करते हैं । (४८) गतानुगतिक न्याय—कुछ ब्राह्मण एक घाट पर तर्पण किया करते थे । वे अपना अपना कुश एक ही स्थान पर रख देते थे जिससे एक का कुश दूसरा ले लेता था । एक दिन पहचान के लिये एक ने अपने कुश को ईँट से दबा दिया । उसकी देखा देखी दूसरे दिन सबने अपने कुश पर ईंट रखी । जहाँ एक की देखादेखी लोग कोई काम करने लगते हैं वहाँ यह न्याय कहा जाता है । (४९) गुड़जिह्विका न्याय—जिस प्रकार बच्चे को कड़वी औषध खिलाने के लिये उसे पहले गुड़ देकर फुसलाते हैं उसी प्रकार जहाँ अरुचिकर या कठिन काम कराने के लिये पहले कुछ प्रलोभन दिया जाता है वहाँ इस उक्ति का प्रयोग होता है । (५०) गोवलीरवर्द न्याय—'वलीवर्द' शब्द का अर्थ है बैल । जहाँ यह शब्द गो के साथ हो वहाँ अर्थ और भी जल्दी खुल जाता है । ऐसे शब्द जहाँ एक साथ होते हैं वहाँ के लिये यह कहावत है । (५१) घट्टकुटीप्राभात न्याय—एक बनिया घाट के महसूल से बचने के लिये ठीक रास्ता छोड़ ऊबड़खाबड़ स्थानों में रातभर भटकता रहा पर सबेरा होते होते फिर उसी महसूल की छावनी पर पहुँचा और उसे महसूल देना पडा़ । जहाँ एक कठिनाई से बचने के लिये अनेक उपाय निष्फल हों और अंत में उसी कठिनाई में फँसना पडे़ वहाँ यह न्याय कहा जाता है । (५२) घटप्रदीप न्याय—धडा़ अपने भीतर रखे हुए दीप का प्रकाश बाहर नहीं जाने देता । जहाँ कोई अपना ही भला चाहता है दूसरे का उपकार नहीं करता यहाँ यह प्रयुक्त होता है । (५३) घुणाक्षर न्याय—घुनों के चालने से लकडी़ में अक्षरों के से आकार बन जाते हैं, यद्यपि घुन इन उद्देश्य से नहीं काटते कि अक्षर बनें । इसी प्रकार जहाँ एक काम करने में कोई दूसरी बात अनायस हो जाय वहाँ यह कहा जाता है । (५४) चंपकपटवास न्याय—जिस कपडे़ में चंपे का फूल रखा हो उसमें फूलों के न रहने पर भी बहुत देर तक महँक रहती है । इसी प्रकार विषय भोग का संस्कार भी बहुत काल तक बना रहता है । (५५) जलतरंग न्याय—अलग नाम रहने पर भी तरंग जल से भिन्न गुण की नहीं होती । ऐसा ही अभेद सूचित करने के लिये इस उक्ति का व्यवहार होता है । (५६) जलतुंबिका न्याय—(क)तूँबी पानी में नहीं डूबती, डुबाने से ऊपर आ जाती है । जहाँ कोई बात छिपाने से छिपनेवाली नहीं होती वहाँ इसे कहते हैं । (ख) तूँबी के ऊपर मिट्टी कीचड़ आदि लपेटकर उसे पानी में डाले तो वह डूब जाती है पर कीजड़ धोकर पानी में डालें तो नहीं डूबती । इसी प्रकार जीव देहादि के नलों से युक्त रहने पर संसार सागर में निमग्न हो जाता है और मल आदि छूटने पर पार हो जाता है । (५७) जलानयन न्याय—पानी 'लाओं' कहने से उसकै साथ बरतन का लाना भी समझ लिया जाता है क्योंकि बरतन के बिना पानी आवेगा किसमें । (५८) तिलतंडुल न्याय—चावल और तिल की तरह मिली रहने पर भी अलग दिखाई देनेवाली वस्तुओं के संबंध में इसका प्रयोग होता है । (५९) तृणजलौका न्याय—दे॰'तृणजलौका' शब्द । (६०) दंडचक्र न्याय—जैसे घडा़ बनने में दंड, चक्र आदि कई कारण हैं वैसे ही जहाँ कोई बात अनेक कारणों से होती है वहाँ यह उक्ति कही जाती है । (६१) दंडापूप न्याय—कोई डंडे में बँधे हुए मालपूए छोड़कर कहीं गया । आने पर उसने देखा कि डंडे का बहुत सा भाग चूहे खा गए हैं । उसने सोचा कि जब चूहे डंडा तक खा गए तब मालपूए को उन्होंने कब छोडा़ होगा । जब कोई दुष्कर और कष्टसाध्य कार्य हो जाता है तब उसके साथ ही लगा हुआ सुखद और सहज कार्य अवश्य ही हुआ होगा यही सूचित करने के लिये यह कहावत कहते हैं । (६२) दशम न्याय—दस आदमी एक साथ कोई नदी तैरकर पार गए । पार जाकर वे यह देखने के लिये सबको गिनने लगे कि कोई छूटा या वह तो नहीं गया । पर जो गिनता वह अपने को छोड़ देता इससे गिनने में नौ ही ठहरते । अंत में उस एक खोए हुए के लिये सबने रोना शुरू किया । एक चतुर पथिक ने आकर उनसे फिर से गिनने के लिये कहा । जब एक उठकर नौ तक गिन गया तब पथिक ने कहा 'दसवें तुम' । इसपर सब प्रसन्न हो गए । वेदांती इस न्याय का प्रयोग यह दिखाने के लिये करते हैं कि गुरु के 'तत्वमसि' आदि उपदेश सुनने पर अज्ञान और तज्जनित दुःख दूर हो जाता है । (६३) देहलीदीपक न्याय—देहली पर दीपक रखने से भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला रहता है । जहाँ एक ही आयोजन से दो काम सधें या एक शब्द या बात दोनों ओर लगे वहाँ इस न्याय का प्रयोग होता है । (६४) नष्टाश्वरदग्धरथ न्याय—एक आदमी रथ पर बन मे जाता था । वन में आग लगी और उसका घोडा़ मर गया । वह बहुत व्याकुल घूमता था कि इतने में एक दूसरा आदमी मिला जिसका रथ जल गया था और घोडा़ बचा था । दोनों ने मिलकर काम चला लिया । इस प्रकार जहाँ दो आदमी मिलकर एक दूसरे की त्रुटि की पूर्ति करके काम चलाते हैं वहाँ इसे कहते हैं । (६५) नारिकेलफलांबु न्याय—नारिकेल के फल में जिस प्रकार न जाने कहाँ से कैसे जल आ जाता है उसी प्रकार लक्ष्मी किस प्रकार आती है नहीं जान पड़ता । (६६) निम्नगाप्रवाह न्याय—नदी का प्रवाह जिस ओर को जाता है उधर रुक नहीं सकता । इसी प्रकार के अनिवार्य क्रम के दृष्टांत में यह कहावत है । (६७) नृपनापितपुत्र न्याय—किसी राजा के यहाँ एक नाई नौकर था । एक दिन राजा ने उससे कहा कि कहीं से सबसे सुंदर बालक लाकर मुझे दिखाओ । नाई को अपने पुत्र से बढ़कर और कोई सुंदर बालक कहीं न दिखाई पडा़ और वह उसी को लेकर राजा के सामने आया । राजा उस काले कलूटे बालक को देख बहुत क्रुद्ध हुआ, पर पीछे उसने सोचा कि प्रेम या राग के वश इसे अपने लड़के सा सुंदर और कोई दिखाई ही न पडा़ । राग के वश जहाँ मनुष्य अंधा हो जाता है और उसे अच्छे बुरे की पहचान नहीं रह जाती वहाँ इस न्याय का प्रयोग होता है । (६८) पंकप्रक्षालन न्याय—कीचड़ लग जायगा तो धो डालेंगे इसकी अपेक्षा यही विचार अच्छा है कि कीचड़ लगने ही न पावे । (६९) पंजरचालन न्याय—दस पक्षी यदि किसी पिंजडे़ में बंद कर दिए जायँ और वे सब एक साथ यत्न करें तो पिजडे़ को इधर उधर चला सकते हैं । दस ज्ञानेद्रियाँ और दस कमेंद्रियाँ प्राणरूप क्रिया उत्पन्न करके देह को चलाती हैं इसी के दृष्टांत में साख्यवाले उक्त न्याय करते हैं । (७०) पाषाणेष्टक न्याय—ईट भारी होती है पर उससे भी भारी पत्थर होता है । (७१) पिष्टपेषण न्याय—पीसे को पीसना निरर्थंक है । किए हुए काम को व्यर्थ जहाँ कोई फिर करता है वहाँ के लिये यह उक्ति है । (७२) प्रदीप न्याय—जिस प्रकार तेल, बत्ती और आग इन भिन्न भिन्न वस्तुओं के मेल से दीपक जलता है उसी प्रकार सत्व, रज और तम इन परस्पर भिन्न गुणों के सहयोग से देह- धारण का व्यापार होता है । (सांख्य) । (७३) प्रापाणक न्याय—जिस प्रकार घी, चीनी आदि कई वस्तुओं के एकत्र करने से बढ़िया मिठाई बनती है उसी प्रकार अनेक उपादानों के योग से सुंदर वस्तु तैयार होने के दृष्टांत में यह उक्ति कही जाती है । साहित्यवाले विभाव, अनुभाव आदि द्वारा रस का परिपाक सूचित करने के लिये इसका प्रयोग प्रायः करते हैं । (७४) प्रासादवासि न्याय—महल में रहनेवाला यद्यपि कामकाज के लिये नीचे उतरकर बाहर इधर उधर भी जाता है पर उसे प्रसादवासी ही कहते है इसी प्रकार जहाँ जिस विषय की प्रधानता होती है वहाँ उसी का उल्लेख होता है । (७५) फलवत्सहकार न्याय—आम के पेड़ के नीचे पथिक छाया के लिये ही जाता है पर उसे फल भी मिल जाता है । इसी प्रकार जहाँ एक लाभ होने से दूसरा लाभ भी हो वहाँ यह न्याय कहा जाता है । (७६) बहुवृकाकृष्ट न्याय—एक हिरन को यदि बहुत से भेड़िए लगें तो उसके अंग एक स्थान पर नहीं रह सकते । जहाँ किसी वस्तु के लिये बहुत से लोग खींचाखींची करते हैं वहाँ वह यथास्थान वा समूची नही रह सकती । (७७)विलवर्तिगोधा न्याय—जिस प्रकार बिल में स्थित गोह का विभाग आदि नहीं हो सकता उसी प्रकार जो वस्तु अज्ञात है उसके संबंध में भला बुरा कुछ नहीं कहा जा सकता । (७८) ब्राह्मणग्राम न्याय—जिस ग्राम में ब्राह्मणों की बस्ती अधिक होती है उसे ब्राह्मणों का गाँव करते है यद्यपि उसमें कुछ और लोग भी बसते हैं । औरों को छोड़ प्रधान वस्तु का ही नाम लिया जाता है, यही सूचित करने के लिये यह कहावत है । (७९) ब्राह्मणअमण न्याय—ब्राह्मण यदि अपना धर्म छोड़ श्रमण (बौद्ध भिक्षुक) भी हो जाता है तब भी उसे ब्रह्मण श्रमण कहते हैं । एक वृत्ति को छोड़ जब कोई दूसरी वृत्ति ग्रहण करता है तब भी लोग उसकी पूर्ववृत्ति का निर्देश करते हैं । (८०) मज्जनोन्मज्जन न्याय—तैरना न जाननेवाला जिस प्रकार जल में पड़कर डूबता उतरता है उसी प्रकार मूर्ख या दुष्ट वादी प्रमाण आदि ठीक न दे सकने के कारण क्षुब्ध ओर व्याकुल होता है । (८१) मंडूकतोलन न्याय—एक धूर्त बनिया तराजू पर सौदे के साथ मेढक रखकर तौला करता था । एक दिन मेढक कूदकर भागा और वह पकडा़ गया । छिपाकर की हुई बुराई का भडा एक दिन फूटता है । (८२) रज्जुसर्प न्याय—जबतक दृष्टि ठीक नहीं पड़ती तबतक मनुष्य रस्सी को साँप समझता है इसी प्रकार जबतक ब्रह्मज्ञान नहीं होता तबतक मनुष्य दुश्य जगत् को सत्य समझता है, पीछे ब्रह्मज्ञान होने पर उसका भ्रम दूर होता है और वह समझता है कि ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । (वेदांती) । (८३) राजपुत्रव्याध न्याय—कोई राजपुत्र बचपन में एक ब्याध के घर पड़ गया और वहीं पलकर अपने को व्याधपुत्र ही समझने लगा । पीछे जब लोगों ने उसे उसका कुल बताया तब उसे अपना ठीक ठीक ज्ञान हुआ । इसी प्रकार जबतक ब्रह्मज्ञान नहीं होता तबतक मनुष्य अपने को न जाने क्या समझा करता है । ब्रह्मज्ञान हो जाने पर वह समझता है कि 'में ब्रह्म हूँ' । (वेदांती) । (८४) राजपुरप्रवेश न्याय—राजा के द्वार पर जिस प्रकार बहुत से लोगों की भीड़ रहती है पर सब लोग बिना गड़बड ़ या हल्ला किए चुपचाप कायदे से खडे़ रहते हैं उसी प्रकार जहाँ सुव्यवस्थापूर्वक कार्य होता है वहाँ यह न्याय कहा जाता है । (८५) रात्रिदिवस न्याय—रात दिन का फर्क । भारी फर्क । (८६) लूतातंतु न्याय—जिस प्रकार मकडी़ अपने शरीर से ही सूत निकालकर जाला बनाती है और फिर आप ही उसका संहार करती है इसी प्रकार ब्रह्म अपने से ही सृष्टि करता है और अपने में उसे लय करता है । (८७) लोष्ट्रलगुड न्याय—ढेला तोड़ने के लिये जैसे डंडा होता है उसी प्रकार जहाँ एक का दमन करनेवाला दूसरा होता है वहाँ यह कहावत कही जाती है । (८८) लोह चुंबक न्याय—लोहा गतिहीन और निष्क्रिय होने पर भी चुंबक के आकर्षण से उसके पास जाता है उसी प्रकार पुरुष निष्क्रिय होने पर भी प्रकृति के साहचर्य से क्रिया में तत्पर होता है । (सांख्य) । (८९) वरगोष्ठी न्याय—जिस प्रकार वरपक्ष और कन्यापक्ष के लोग मिलकर विवाह रूप एक ऐसे कार्य का साधन करते हैं जिससे दोनों का अभीष्ट सिद्ध होता है उसी प्रकार जहाँ कई लोग मिलकर सबके हित का कोई काम करते हैं वहाँ यह न्याय कहा जाता है । (९०) वह्निधूम न्याय—धूमरूप कार्य देखकर जिस प्रकार कारण रूप अग्नि का ज्ञान होता है उसी प्रकार कार्य द्वारा कारण अनुमान के संबंध में यह उक्ति है (नैयायिक) । (९१) विल्वखल्लाट (खल्वाट) न्याय—धूप से व्याकुल गंजा छाया के लिये बेल के पेड़ के नीचे गया । वहाँ उसके सिर पर एक बेल टूटकर गिरा । जहाँ इष्टसाध्न के प्रयत्न में अनिष्ट होता है वहाँ यह उक्ति कही जाती है । (९२) विषवृक्ष न्याय—विष का पेड़ लगाकर भी कोई उसे अपने हाथ से नहीं काटता । अपनी पाली पोसी वस्तु का कोई अपने हाथ से नाश नहीं करता । (९३) वीचितरंग न्याय—एक के उपरांत दूसरी, इस क्रम से बरा- बर आनेवाली तरंगों के समान । नैयायिक ककारादि वर्णों की उत्पत्ति वीचितरंग न्याय से मानते हैं । (९४) वीजांकुर न्याय—बीज से अंकुर या अंकुर से बीज है यह ठीक नहीं कहा जा सकता । न बीज के बिना अंकुर हो सकता है न अंकुर के बिना । बीज और अंकुर का प्रवाह अनादि काल से चला आता है । दो संबद्ध वस्तुओं के नित्य प्रवाह के दृष्टांत में वेदांती इस न्याय को कहते हैं । (९५) वृक्षप्रकंपन न्याय—एक आदमी पेड़ पर चढा़ । नीचे से एक ने कहा कि यह डाल हिलाओ, दुसरे ने काहा यह डाल हिलाओ । पेड़ पर चढा़ हुआ आदमी कुछ स्थिर न कर सका कि किस डाल को हिलाऊँ । इतने में एक आदमी ने पेड़ का धड़ ही पकड़कर हिला डाला जिससे सब डालें हिल गई । जहाँ कोई एक बात सबके अनुकूल हो जाती है वहाँ इसका प्रयोग होता है । (९६) वृद्धकुमारिका न्याय या वृद्धकुमारी वाक्य न्याय— कोई कुमारी तप करतो करती बुड्ढी हो गई । इंद्रो ने उससे कोई एक वर माँगने के लिये कहा । उसने वर माँगा कि मेरे बहुत से पुत्र सोने के बरतनों में खूब धी दूध और अन्न खायँ । इस प्रकार उसने एक ही वाक्य में पति, पुत्र गोधन धान्य सब कुछ माँग लिया । जहाँ एक की प्राप्ति से सब कुछ प्राप्त हो वहाँ यह कहावत कही जाती है । (९७) शतपत्रभेद न्याय—सौ पत्ते एक साथ रखकर छेदने से जान पड़ता हैं कि सब एक साथ एक काल में ही छिद गए पर वास्तव में एक एक पत्ता भिन्न भिन्न समय में छिदा । कालांतर की सूक्ष्मता के कारण इसका ज्ञान नहीं हुआ । इस प्रकार जहाँ बहुत से कार्य भिन्न भिन्न समयों में होते हुए भी एक ही समय में हुए जान पड़ते हैं वहाँ यह दृष्टांत वाक्य कहा जाता है । (सांख्य) । (९८) श्यामरक्त न्याय—जिस प्रकार कच्चा काला धडा़ पकने पर अपना श्याम गुण छोड़ कर रक्तगुण धारण करता है उसी प्रकार पूर्व गुण का नाश और अपर गुण का धारण सूचित करने के लिये यह उक्ति कही जाती है । (९९) श्यालकशुनक न्याय—किसी ने एक कुत्ता पाला था और उसका नाम अपने साले का नाम रखा था । जब वह कुत्ते का नाम लेकर गालियाँ देता तब उसकी स्त्री अपने भाई का आप- मान समझकर बहुत चिढ़ती । जिस उद्देश्य से कोई बात नहीं की जाती वह यदि उससे हो जाती है तो यह कहावत कही जाती हैं । (१००) संदंशपतित न्याय—सँड़सी जिस प्रकार अपने बीच आई हुई वस्तु के पकड़ती है उसी प्रकार जहाँ पूर्व ओर उत्तर पदार्थ द्वारा मध्यस्थित पदार्थ का ग्रहण होता है वहाँ इस न्याय का व्यवहार होता है । (१०१) समुद्रवृष्टि न्याय—समुद्र में पानी बरसने से जैसे कोई उपकार नहीं होता उसी प्रकार जहाँ जिस बात की कोई आवश्यकता या फल नहीं वहाँ यदि वह की जाती है तो यह उक्ती चरितार्थ की जाती है । (१०२) सर्वापेक्षा न्याय—बहुत से लोगों का जहाँ निमंत्रण होता है वहाँ यदि कोई सबके पहले पहूँचता है तो उसे सबकी प्रतीक्षा करनी होती है । इस प्रकार जहाँ किसी काम के लिये सबका आसरा देखना होता है वहाँ उक्ति कही जाती है । (१०३) सिंहवलोकन न्याय—सिंह शिकार मारकर जब आगे बढ़ता है तब पीछे फिर फिरकर देखता जाता है । इसी प्रकार जहाँ अगली और पिछली सब बातों की एक साथ आलोचना होती है वहाँ इस उक्ति का व्यवहार होता है । (१०४) सूचीकटाह न्याय—सूई बनाकर कडा़ह बनाने के समान । किसी लोहार से एक आदमी ने आकर कडा़ह बनाने को कहा । थोडी़ देर में एक दूसरा आया, उसने सूई बनाने के लिये कहा । लोहार ने पहले सूई बनाई तब कडा़ह । सहज काम पहल े करना तब कठिन काम में हाथ लगाना, इसी के दृष्टांत में यह कहा जाता है । (१०५) सुंदोपसुंद न्याय—सुंद और उपसुंद दोनों भाई बडे़ बली दैत्य थे । एक स्त्री पर दोनों मोहित हुए । स्त्री ने कहा दोनों में जो अधिक बलवान होगा उसी के साथ मैं विवाह करूँगी । परिणाम यह हुआ कि दोनों लड़ मरे । परस्पर के फूट से बलवान् से बलवान् मनुष्य नष्ट हो जाता हैं यही सूचित करने के लिये यह कहावत हैं । (१०६) सोपानारोहण न्याय—जिस प्रकार प्रासाद पर जाने के लिसे एक एक सीढी़ क्रम से चढ़ना होता है उसी प्रकार किसी बडे़ काम के करने में क्रम क्रम से चलना पड़ता हैं । (१०७) सोपानावरोहण न्याय—सीढ़ियाँ जिस क्रम से चढ़ते हैं उसी के उलटे क्रम से उतरते हैं । इसी प्रकार जहाँ किसी क्रम से चलकर फिर उसी के उलटे क्रम से चलना होता है (जैसे, एक बार एक से सौ तक गिनती गिनकर फिर सौ से निन्नानवे, अट्ठानबे इस उलटे क्रम से गिनना) वहाँ यह न्याय कहा जाता है । (१०८) स्थविरलगुड न्याय—बुड्ढे के हाथ फेंकी हुई लाठी जिस प्रकार ठीक निशाने पर नहीं पहुँचती उसी प्रकार किसी बात के लक्ष्य तक न पहुँचने पर यह उक्ति कही जाती है । (१०९) स्थूणानिखनन न्याय—जिस प्रकार घर के छप्पर में चाँड़ देने के लिये खंभा गाड़ने में उसे मिट्टी आदि डालकर दृढ़ करना होता है उसी प्रकार युक्ति उदाहरण द्वारा अपना पक्ष दृढ़ करना पड़ता है । (११०) स्थूलारुंधती न्याय—विवाह हो जाने पर वर और कन्या को अरुंधती तारा दिखाया जाता है जो दूर होने के कारण बहुत सूक्ष्म हैं और जल्दी दिखाई नहीं देता । अरुंधती दिखाने में जिस प्रकार पहले सप्तर्षि को दिखाते हैं जो बहुत जल्दी दिखाई पड़ता है और फिर उँगली से बताते हैं कि उसी के पास वह अरुंधती है देखो, इसी प्रकार किसी सूक्ष्म तत्व का परिज्ञान कराने के लिये पहले स्थूल दृष्टांत आदि देकर क्रमशः उस तत्व तक ले जाते हैं । (१११) स्त्रामिभृत्य न्याय—जिस प्रकार मालिक का काम करके नौकर भी स्वामी की प्रसन्नता से अपने को कृतकार्य समझता है उसी प्रकार जहाँ दूसरे का काम हो जाने से अपना भी काम या प्रसन्नता हो जाय वहाँ के लिये यह उक्ति हैं । ऊपर जो न्याय दिए गए है उनका व्यवहार प्रायः होता है और बहुत से न्याय संस्कृत में आते हैं जो विस्तारभय से नहीं दिए गए । लौकिक न्याय संग्रह नामक ग्रंथ में जिसके कर्त्ता रघुनाथ हैं ३६४ न्यायों की सूची हैं ।

५. सादृश्यता । अमानता । तुल्यता (को॰) ।

६. विष्णु का एक नाम (को॰) ।