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पंख

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प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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पंख छता परबस परयो सूवा के बुधि नाहिं ।—संतवानी॰, पृ॰ ३२ ।

पंख संज्ञा पुं॰ [सं॰ पक्ष, प्रा॰ पक्ख]

१. पर । डैना । वह अवयव जिससे चिड़िया, फतिंगे आदि हवा में उड़ते हैं । उ॰—(क) पंख छत्ता परबस परा सूआ के बुधि नाहि ।—कबीर (शब्द॰) । (ख) काटेसि पंख परा खग धरनी ।—तुलसी (शब्द॰) । मुहा॰—पंख जमना = (१) न रहने को लक्षण उत्पन्न होना । भागने या चल जाने का लक्षण देख पड़ना । जैसे,—इस नौक र को भी अब पंख जमे यह न रहेगा । (२) इधर उधर घूमने की इच्छा देख पड़ना । बहकने या बुरे रास्ते पर जाने का रंग ढंग दिखाई पड़ना । जैसे,—इस लड़के को भी अब पंख जम रहे हैं । (३) प्राण खोने का लक्षण दिखाई देना । शामत आना । विशेष—बरसात में चींटों, चींटियों तथा और कीड़ों को पर निकलते हैं और वे उड़ उड़कर मर जाते हैं, इससे यह मुहा- वरा बना है । पंख लगना = पक्षी के समान वेगवान् होना । पंख लपेटे सिर धुनना = मधु के लोभ से मधु की मक्खी सा बनना । स्वयं ही परेशानी में डालकर पछताना । उ॰—पंख लपेटे सिर धुनै, मनहीं मन पछताय ।—धरनी॰, पृ॰ ८४ ।

२. तीर के आगे दोनों और निकला हुआ फल ।