पचना

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

पचना क्रि॰ अ॰ [सं॰ पचन]

१. खाई हुई वस्तु का जठराग्नि की सहायता से रसादि में परिणत होना । भुक्त पदार्थो का रसादि में परिणत होकर शरीर में लगने योग्य होना । हजम होना । जैसे,—(क) रात का भोजन अभी तक नहीं पचा । (ख) जरा सा चूरण खा लो, भोजन पच जायगा ।

२. क्षय होना । समाप्त या नष्ट होना । जैसे, बाई पचना, शेखी पचना, मोटाई पचना ।

३. किसी चीज का मालिक के हाथ से निकलकर अनुचित रूप से किसी दूसरे के हाथ में इस प्रकार चला जाना कि फिर कोई उससे ले न सके । पराया माल इस प्रकार अपने हाथ में आ जाना कि फिर वापस न हो सके । हजम हो जाना । जैसे,—उनके यहाँ अमानत में हजारों रुपए के जेवर रखे खे, सब पच गए ।

४. अनुचित उपाय से प्राप्त किए हुए धन या पदार्थ का काम में आना । जैसे—उन्होंने लावारसी माल ले तो लिया पर पचा न सके, सब चोर चुरा ले गए ।

५. बहुत अधिक परिश्रम के कारण शरीर, मस्तिष्क आदि का गलना, सूखना या क्षीण होना । ऐसा परिश्रम होना । जिससे शरीर क्षीण हो । बहुत हैरान होना । दुःख सहना । उ॰—ऊँचे नीचे करम धरम अधरम करि पेट ही को पचत बेचत बेटा बेटकी ।—तुलसी (शव्द॰) । संयो॰ क्रि॰—जाना । मुहा॰—पच मरना = किसी काम के लिये बहुत अधिक परिश्रम करना । जीतोड़ मिहनत करना । परेशान ह्वोना । हैरान होना । उ॰—जगत भेख माया के कारण पच्च मरै दिन रात रे । अंत बेर नागा हुय चालै ना कोई संग न साथ रे । राम॰ धर्म॰, पृ॰ २१९ ।

६. एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ में पूर्ण रूप से लीन होना । खपना । जैसे,—जरा से चावल में सारा घी पच गया ।