पताका

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

पताका संज्ञा स्त्री॰ [सं॰]

१. लकड़ी आदि के डंडे के एक सिरे पर पहनाया हुआ तिकोना या चौकोना कपड़ा, जिसपर कभी कभी किसी राजा या संस्था का खास चिह्न या संकेत चित्रित रहता है । झंडा । झंड़ी । फरहरा । विशेष-दे॰ 'ध्वज' । उ॰—धवल धाम चहुँ ओर फरहरत धुजा पताका ।—भारतेंदु ग्रं॰, भा॰ १, पृ॰ २८२ । विशेष—साधारणतः मंगल या शोभा प्रकट करने के लिये पताका का व्यवहार होता है । देवताओं के पूजन में भी लोग पताका खड़ी करते या चढ़ाते हैं । युद्धयात्रा, मंगलयात्रा आदि में पताकाऐँ साथ साथ चलती हैं । राजा लोगों के साथ उनके विशष चिह्न से चित्रित पताकाएँ चलती हैं । कोई स्थान जीतने पर राजा लोग विजयचिह्न स्वरूप अपनी पताका वहाँ गाड़ते हैं । पर्या॰—कंदुली । कदली । कदलिका । जयंती । चिह्न । ध्वजा । वैजयंती । क्रि॰ प्र॰—उड़ना ।—उड़ाना ।—फहराना । मुहा॰—(किसी स्थान में अथवा किसी स्थान पर) पताका उड़ाना = अधिकार होना । राज्य होना । जैसे,—कोई समय था जब इस सारे देश में राजपूतों की ही पताका उड़ा करती थी । समकक्षरहित होना । सर्वप्रधान होना । सबसे श्रेष्ठ माना जाना । जैसे,—आज व्याकरण शास्त्र में अमुक पंडित की पताका उड़ रही है । (किसी वस्तु की) पताका उड़ाना = प्रसिद्ध होना । धूम होना । जैसे,—(क) आपकी दानशीलता की पताका चारों ओर उड़ रही है । पताका उड़ाना = आधिकार करना । विजयी होना । जैसे,—घबराने की बात नहीं, आज नहीं तो कल आप अवश्य ही इस दुर्ग पर अपनी पताका उड़ावेंगे । पताका गिरना = हार होना । परा- जय होना । जैसे,—दिन भर शत्रुओं के नाकों चने चबवाने के पीछे अंत को सायंकाल पराक्रमी राजपूतों की पताका गिर गई । पताकापतन या पताकापात = पताका गिरना । पताका फहराना = (१) पताका उड़ाना । (२) पताका उडाना विजय की पताका = विजयी पक्ष की वह पताका जो विजित पक्ष की पताका गिराकर उसके स्थान पर उड़ाई जाय । विजयसूचक पताका ।

२. वह डंडा जिसमें पताका पहनाई हुई होती है । ध्वज ।

३. सौभाग्य ।

४. तीर चलाने में उँगलियों का एक विशेष न्यास या स्थिति ।

५. दस खर्ब की संख्या जो अंकों में इस प्रकार लिखी जायगी--१०,॰॰,॰॰,॰॰,॰॰,॰॰०, ।

६. नाटक में वह स्थल जहाँ किसी पात्र के चिंतागत भाव या विषय का समर्थन या पोषण आगंतुक भाव से हो । विशेष—जहाँ एक पात्र एक विषय में कोई बात सोच रहा हो और दूसरा पात्र आकर दूसरे संबंध में कोई बात कहे, पर उसकी बात से प्रथम पात्र के चिंतागत विषय का मेल या पोषण होता हो वहाँ यह स्थल माना जाता है । विशेष दे॰ 'नाटक' ।

७. पिंगल के ९ प्रत्ययों में से ८ वाँ जिसके द्वारा किसी निश्चित गरुलघु वर्ण के छंद अथवा छंदों का स्थान जाना जाय । विशेष—उदाहरणार्थ, प्रस्तार द्वारा यह मालूम हुआ कि ८ मात्राओं के कुल ३४ छंदभेद होते हैं और मेरु प्रत्यय द्वारा यह भी जाना गाया कि इनमें से ७ छंद १ गुरु और ६ लघु वर्ण के होंगे । अब यह जानना रहा कि ये सातों छंद किस किस स्थान के होंगे । पताका की क्रिया से यह ज्ञात होगा कि १३ वें, २१ वें, २६ वें, २९ वें, ३१ वें, ३२ वें, ३३ वें, स्थान के छंद १ गुरु और ६ लघु के होंगे ।

८. नाटयशाल अनुसार प्रासंगिक कथावस्तु के दो भेदों में से एक । वह कथावस्तु जो सानुबंध हो और बराबर चलती रहे । प्रासंगिक कथावस्तु का दूसरा भेद 'प्रकरी' है ।