परमहंस

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

परमहंस संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. संन्यासियों का एक भेद । वह संन्यासी जो ज्ञान की परमावस्था को पहुँच गया हो अर्थत् 'सच्चिदा- नंद ब्रह्म मैं ही हूँ' इसका पूर्ण रूप से अनुभव जिसे हो गया हो । उ॰—संन्यासी कहावै तो तू तीन्यो लोक न्यास करि सुंदर परमहंस होइ या सिधंत है ।—सुंदर ग्रं॰, भा॰ २, पृ॰ ६१२ । विशेष—कुटीचक, बहूदक, हंस और परमहंस जो चार प्रकार के अवधूत कहे कए है उनमें परमहंस सबसे श्रेष्ठ है । जिस प्रकार संन्यासी होने पर शिखासूत्र का त्याग कर दंड ग्रहण करते हैं उसी प्रकार परमहंस अवस्था को प्राप्त कर लेने पर दंड की भी आवश्यकता नहीं रह जाती । निर्णायसिंधु में लिखा है कि जो परमहंस विद्वान् न हों उन्हें एक दंड धारण करना चाहिए पर जो विद्वान् हों उन्हें दंड की कोई आवश्यकता नहीं । परमहंस आश्रम में प्रवेश करने पर मनुष्य सब प्रकार के वंधनों से मुक्त समझा जाता है । उसके लिये श्राद्ध, संध्या, तर्पण आदि आवश्यक नहीं । देवार्चन आदि भी उसके लिये नहीं हैं, किसी को नमस्कार आदि करने से उसे कोई प्रयोजन नहीं । उसे अध्यात्मनिष्ठ होकर निर्द्वद्वं और निराग्रह भाव से ब्रह्म में स्थित रहना चाहिए । पर आजकल कुछ परमहंस देवमूर्तियों का पूजन आदि करते हैं, पर नमस्कार नहीं करते ।

२. परमात्मा । उ॰—परमहंस तुम सबके ईस । बचन तुम्हारो श्रुति जगदीस ।—सूर (शब्द॰) ।