परमार

विक्षनरी से


हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

परमार संज्ञा पुं॰ [सं॰ पर ( = शत्रु) + हिं॰ मारना] राजपूतों का एक कुल जो अग्निकुल के अंतर्गत है । पँवार । विशेष—परमारों की उत्पत्ति शिलालेखों तथा पद्मगुप्तरचित 'नवसाहसांकचरित' नामक ग्रंथ में इस प्रकार मिलती है । महर्षि वशिष्ठ अर्बुदगिरि (आबू पहाड़) पर निवास करते थे । विश्वामित्र उनकी गाय वहाँ से छीन ले गए । वशिष्ठ ने यज्ञ किया और अग्निकुंड़ से एक बीर पुरुष उत्पन्न हुआ जिसने बात की बात में विश्वामित्र की सारी सेना नष्ट करके गाय लाकर वशिष्ठ के आश्रम के पर बाँध दी । वशिष्ठ ने प्रसन्न होकर कहा 'तुम परमार (शत्रुओं को मारनेवाले) हो और तु्म्हारा राज्य चलेगा' । इसी परमार के वंश के लोग परमार कहलाए । पृथ्वीराज रासो (आदि पर्व) के अनुसार उपद्रवी दानवों से आबू के ऋषियों की रक्षा करने के लिये वशिष्ठ ने अग्निकुंड़ से परमार की उत्पत्ति की । टाड साहब ने परमारों की अनेक शाखाएँ गिनाई हैं, जैसे, मोरी (जो गहलोतों के पहले चित्तौर के राजा थे), सोडा, या सोढा, संकल, खैर, उमर सुमरा (जो आजकल मुसलमान हैं), विहिल, महीपावत, बलहार, कावा, ओमता, इत्य़ादि । इनके अतिरिक्त चाँवड़, खेजर, सगरा, वरकोटा, संपाल, भीवा, कोहिला, धंद, देवा, बरहर, निकुंभ, टीका, इत्यादि और भी कुल हैं जिनमें से कुछ सिंध पार रहते हैं और पठान मुसलमान हो गए हैं । परमारों का राज्य मालवा में था । यह तो प्रसिद्ध ही है कि अनेक स्थानों पर मिले हुए शिलालेखों तथा पद्मगुप्त के नव- साहसांकचरित से मालवा के परमार राजाओं की वंशावली इस प्रकार निकलती है— परमार कृष्ण उपेंद्र वैरिसिंह(१ म) सीयक (१ म) वाक्पति (१म) वैरिसिंह वज्रट (द्वितीय) सीयक हर्ष वाक्पति (२ य) सिंधुराज नवसाहसांक भोज उदयादित्य ईसा की आठवीं शताब्दी में कृष्ण उपेंद्र ने मालवा का राज्य प्राप्त किया । सीयक (द्वितीय) या श्रीहर्षदेव के संबंध में पद्मगुप्त ने लिखा है कि उसने एक हूण राजा को पराजित किया । उदयपुर की प्रशस्ति से यह भी जाना जाता है कि उसने राष्ट्रकूट वंशीय मान्यखेट (मानखेडा़) के राजा खेट्टिग- देव का राज्य ले लिया । 'पाइअलच्छी नाममाला' नाम का 'धनपाल' का लिखा एक प्राकृत कोश है जिसमें लिखा है कि 'विक्रम' संवत् १०२६ में मालवा के राजा ने मान्यखेट पर चढा़ई की और उसे लूटा । उसी समय में यह ग्रंथ लिखा गया । श्रीहर्षदेव या सीयक (द्वितीय) के पुत्र वाक्पतिराज (द्वितीय) का पहला ताम्रपत्र १०३१ वि॰ संवत् का मिलता है । ताम्रपत्रों, शिलालेखों और नवसाहसां- कचरित में वाक्पतिराज के कई नाम मिलते हैं, जैसे, मुंज, उत्पलराज, अमोधवर्ष, पृथिवीवल्लभ, श्रीवल्लभ आदि । यह बड़ा विद्वान् और कवि था । मुंज वाक्पतिराज के अनेक श्लोक प्रबंधचिंतामणि, भोजप्रबंध तथा अलंकार ग्रंथों में मिलते हैं । इसकी सभा में कवि धनंजय, पिंगल टीकाकार हलायुध, कोशकार धनपाल और पद्मगुप्त परिमल आद ि अनेक पंडित थे । इसने दक्षिण के कर्णाट, लाट केरल, चोल आदि अनेक देशों को जय किया । प्रबंधचितामणि में लिखा है कि वाक्पतिराज ने चालुक्यराज द्वितीय तैलप को सोलह बार हराया, पर अंत में एक चढा़ई में एक चढाई में उसके यहाँ बंदी हो गया और वहीं उसकी मृत्यु हुई । चालुक्य राजाओं के शिलालेखों में भी इस बात का उल्लेख मिलता है । मुंज के उपरांत उसका छोटा भाई सिंधुराज या सिंधुल गद्दी पर बैठा । इसकी एक उपाधि 'नवसाहसांक' भी थी । 'नवसाहसांकचरित' में 'पद्मगुप्त' ने इसी का वृत्तांत लिखा है । सिंधुराज का पुत्र महाप्रतापी विद्वान् और दानी भोज हुआ, जिसका नाम भारत में घर घर प्रसिद्ध है । उदयपुर प्रशस्ति में लिखा है कि भोज ने गुर्जर, लाट, कर्णाट, तुरुष्क आदि अनेक देशों पर चढा़ई की । भोज ने कल्याण के चालुक्य राजा तृतीय जयसिंह पर भी चढा़ई की थी । पर जान पड़ता है कि इसमें उसे सफलता नहीं हुई । 'विल्हण' के विक्रमांकदेव- चरित' में लिखा है कि जयसिंह के उत्तराधिकारी चालुक्यराज सोमेश्वर ( द्वितीय) ने भोज की राजधानी धारा नगरी पर चढा़ई की और भोज को भागना पडा़ । 'प्रबंधचिंतामणि' तथा नागपुर की प्रशस्ति में भी लिखा है कि चेदिराज कर्ण और गुर्जरराज चालुक्य भीम ने मिलकर भोज पर चढा़ई की, जिससे भोज का अधःपतन हुआ । भोज की मृत्यु कब हुई, यह ठीक नहीं मालूम । पर इतना अवश्य पता चलता हैं कि ९६४ शक (सन् १०४२-४३ ई॰) तक वह विद्यमान था । राजतरंगिणी में लिखा है कि काश्मीरपति 'कलस' और मालवाधिप 'भोज' दोनों कवि थे और एक ही समय में वर्तमान थे । इससे जान पड़ता है कि सन् १०६२ ई॰ के कुछ काल पीछे ही उसकी मृत्यु हुई होगी । भोज के पीछे उदयादित्य का नाम मिलता है, जिसने धारा नगरी को शत्रुओं के हाथ से निकाला और धरणीवराह के मंदिर की मरम्मत कराई । इससे अधिक और कुछ ज्ञात नहीं । भूपाल (भोपाल) में प्राप्त उदयवर्म के ताम्रपत्र तथा पिपलिया के ताम्रपत्र में ये नाम और मिलते हैं—भोजवंशीय भहाराज यशोवर्मदेव, उसका पुत्र जयधर्मदेव, उसके पीछे महाकुमार लक्ष्मीवर्मदेव, उसके पीछे हरिश्चंद्र का पुत्र उदयवर्मदेव पिछले दोनों कुमार भोजवंशीय थे या नहीं, यह नहीं कहा जा सकता । जान पड़ता है, ये सामंत राजा थे जो जयवर्मदेव के बहुत पीछे हुए । अवध में 'भुकसा' नाम के कुछ क्षत्रिय हैं जो अपने को भोजवंशी बतलाते हैं । उनका कहना है कि भोज के पीछे उदयादित्य निर्विघ्न राज नहीं कर पाया । उसके भाई जगतराव ने उसे निकाल दिया और वह कुछ अनुचरों और पुरोहितों के साथ वनवास नाम के गाँव में आ बसा । उसी के वंश के ये भुकसा क्षत्रिय हैं ।