परशुराम

विक्षनरी से


हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

परशुराम संज्ञा पुं॰ [सं॰] जमदग्नि ऋषि के एक पुत्र जिन्होंने २१ बार क्षत्रियों का नाश किया था । ये ईश्वर के छठे अवतार माने जाते हैं । 'परशु' इनका मुख्य शस्त्र था, इसी से यह नाम पड़ा । विशेष—महाभारत के शांतिपर्व में इनकी उत्पत्ति के संबंध में यह कथा लिखी है,—कुशिक पर प्रसन्न होकर इंद्र उनके यहाँ गाधि नाम से उत्पन्न हुए । गाधि को सत्यवती नाम की एक कन्या हुई जिसे उन्होंने भृगु के पुत्र ऋचीक को ब्याहा । ऋचीक ने एक बार प्रसन्न होकर अपनी स्त्री और सास के लिये दो चरु प्रस्तुत किए और सत्यवती से कहा 'इस चरु को तुम खाना' । इससे तुम्हें परम शांत और तेजस्वी पुत्र उत्पन्न होगा । इस दूसरे चरु को अपनी माता को दे देना । इससे उन्हें अत्यंत वीर और प्रबल पुत्र उत्पन्न होगा जो सब राजाओं को जीतेगा । पर भूल से सत्यवती ने अपनी मातावाला चरु खा लिया और गाधि की स्त्री, सत्यवती की माता ने सत्यवती का चरु खाया । जब ऋचीक को यह पता चला तब उन्होंने सत्यवती से कहा—'यह तो उलटा हो गया । तुम्हारे गर्भ से अब जो बालक उत्पन्न होगा वह बड़ा कूर और प्रचंड क्षात्रतेज से युक्त होगा और तुम्हारी माता के गर्भ से जो पुत्र होगा वह प्ररम शांत, तपस्वी और ब्राह्मण के गुणों से युक्त होगा' । सत्यवती ने बहुत विनती की कि मेरा पुत्र ऐसा न हो, मेरा पौत्र हो तो हो । महाभारत के वनपर्व में यही कथा कुछ दूसरे प्रकार से है । कुछ दिनों में सत्यवती गर्भ के जमदग्नि की उत्पत्ति हुई जो रूप और स्वाध्याय में अद्वितीय हुए और जिन्होंने समस्त वेद, वेदांग का तथा धनुर्वेद का अध्ययन किया । प्रसेनजित् राजा की कन्या रेणुका से उनका विवाह हुआ । रेणुका के गर्भ से पाँच पुत्र हुए—समन्वान्, सुषेण, वसु, विश्वावसु और राम या परशुराम । इसके आगे वनपर्व में कथा इस प्रकार है । एक दिन रेणुका स्नान करने के लिये नदी में गई थी । वहाँ उसने राजा चित्ररथ को अपनी स्त्री के साथ जलक्रीड़ा करते देखा और कामवासना से उद्विग्न होकर घर आई । जमदग्नि उसकी यह दशा देख बहुत कुपित हुए और उन्होंने अपने चार पुत्रों को एक एक करके रेणुका के बध की आज्ञा दी, पर स्नेहवश किसी से ऐसा न हो सका । इतने में परशुराम आए । परशुराम ने आज्ञा पाते ही माता का सिर काट डाला । इसपर जमदग्नि ने प्रसन्न होकर वर माँगने के लिये कहा । परशुराम बोले—'पहले तो मेरी माता को जिला दीजिए और फिर यह वर दीजिए कि मैं परमायु प्राप्त करूँ और युद्ध में मेरे सामने कोई न ठहर सके' । जम- दग्नि ने ऐसा ही किया । एक दिन राजा कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन जमदग्नि के आश्रम पर आया । आश्रम पर रेणुका को छोड़ और कोई न था । कार्तवीर्य आश्रम के पेड़ पौधों को उजाड़ होमधेनु का बछड़ा लेकर चल दिया । परशुराम ने आकर जब यह सुना तब वे तुरंत दौड़े जाकर कार्तवीर्य की सहस्त्र भुजाओं को फरसे से काट डाला सहस्त्रार्जुन के कुटुंबियों और साथियों ने एक दिन आकार जमदग्नि से बदला लिया और उन्हें वाणों से मार डाला । परशुराम ने आश्रम पर आकर जब यह देखा तब पहले तो बहुत विलाप किया, फिर संपूर्ण क्षत्रियों के नाश की प्रतिज्ञा की । उन्होंने शस्त्र लेकर सहस्त्रार्जुन के पुत्र पौत्रादि का बध करके क्रमशः सारे क्षञियों का नाश किया । परशुराम की इस क्रूरता पर ब्राह्मण समाज में उनकी निंदा होने लगी और परशुराम दया से खिन्न हो वन में चले गए । एक दिन विश्वामित्र के पौत्र परावसु ने परशुराम से कहा कि 'अभी जो यज्ञ हुआ था उसमें न जाने कितने प्रतापी राजा आए थे, आपने पृथ्वी को जो क्षत्रियविहीन करने की प्रतिज्ञा की थी वह सब व्यर्थ थी' । परशुराम इसपर क्रुद्ध होकर फिर निकले और जो क्षत्रिय बचे थे उन सबका बाल बच्चों के सहित संहार किया । गर्भवती स्त्रियों ने बड़ी कठिनता से इधर उधर छिपकर अपनी रक्षा की । क्षत्रियों का नाश करके परशुराम ने अश्वमेध यज्ञ किया और उसमें सारी पृथ्वी कश्यप को दान दो दी । पृथ्वी क्षत्रियों से सर्वथा रहित न हो जाय इस आभिप्राय से कश्यप ने परशुराम से कहा 'अब यह पृथ्वी हमारी हो चुकी अब तुम दक्षिण समुद्र की ओर चले जाओ' । परशुराम ने ऐसा ही किया । वाल्मीकि रामायण में लिखा है जब रामचंद्र शिव का धनुष तोड़ सीता को ब्याहकर लौट रहे थे तब परशुराम ने उनका रास्ता रोका और वैष्णव धनु उनके हाथ में देकर कहा कि 'शैव धनुष तो तुमने तोड़ा अब इस वैष्णव धनुष को चढा़ओ । यदि इसपर बाण चढा़ सकोगे तो मैं तुम्हारे साथ युद्ध करूँगा' । राम धनुष पर बाण चढा़कर बोले 'बोलो अब इस बाण से मैं तुम्हारी' गति का अवरोध करूँ या तप से अर्जित तुम्हारे लोकों का हरण करूँ' । परशु राम ने हततेज और चकित होकर कहा 'मैंने सारी पृथ्वी कश्यप को दान में दे दी है, इससे मैं रात को पृथ्वी पर नहीं सोता । मेरी गति का अवरोध न करो, लोकों का हरण कर लो' ।