परीक्षित

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

परीक्षित ^१ वि॰ [सं॰]

१. जिसकी जाँच की गई हो । जिसका इमत्हान लिया गया हो । कसा, तपाया हुआ ।

२. जिसकी आजमाइश की गई हो । प्रयोग द्वारा जिसकी जाँच की गई हो । समीक्षित । समालोचित । जिसके गुण आदि का अनुभव किया गया हो । जैसे, परीक्षित औषध ।

परीक्षित ^२ संज्ञा पुं॰ [सं॰ परीक्षित्]

१. अर्जुन के पोते और अभि- मन्यु के पुत्र पांडुकुल के एक प्रसिद्ध राजा । विशेष—इनकी कथा अनेक पुराणों में है । महाभारत में इनके विषय में लिखा है कि जिस समय ये अभिमन्यु की स्त्री उत्तरा के गर्भ में थे, द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा ने गर्भ में ही इनकी हत्या कर पांडुकुल का नाश करने के अभिप्राय से ऐषीक नाम के अस्त्र को उत्तरा के गर्भ में प्रेरित किया जिसका फल यह हुआ कि उत्तरा के गर्भ से परीक्षित का झुलसा हुआ मृत पिंड बाहर निकला । भगवान् कृष्णचंद्र को पांडुकुल का नामशेष हो जाना मंजूर न था, इसलिये उन्होंने अपने योगबल से मृत भ्रूण को जीवित कर दिया । परिक्षीण या विनष्ट होने से बचाए जाने के कारण इस बालक का नाम परीक्षित रखा गया । परीक्षित ने महाभारत युद्ध में कुरुदल के प्रसिद्ध महारथी कृपाचार्य से अस्त्रविद्या सीखी थी । युधिष्ठिरादि पांडव संसार भली भाँति उदासीन हो चुके थे और तपस्या के अभिलाषी थे । अतः वे शीघ्र ही उन्हें हस्तिनापुर के सिंहासन पुर बिठा द्रौपदी समेत तपस्या करने चले गए । राज्यप्राप्ति के अनंतर कहतं हैं कि गंगातट पर उन्होंने तीन अश्वमेघ यज्ञ किए जिनमें अंतिम बार देव- ताओं ने प्रत्यक्ष आकर बलि ग्रहण किया था । इनके विषय में सबसे मुख्य बात यह है के इन्हीं के राज्यकाल में द्धापर का अंत और कलियुग का आरंभ होना माना जाता है । इस संबंध में भागवत में यह कथा है—एक दिन राजा परीक्षित ने सुना कि कलियुग उनके राज्य में घुस आया है और अधिकार जमाने का मौका ढूँढ़ रहा है । ये उसे अपने राज्य से निकाल बाहर करने के लिये ढूँढ़ने निकले । एक दिन इन्होंने देखा कि एक गाय और एक बैल अनाथ और कातर भाव से खड़े हैं और एक शूद्र जिसका वेष, भूषण और ठाट बाट राजा के समान था, डंडे से उनको मार रहा है । बैल के केवल एक पैर था, पूछने पर परीक्षित को बैल, गाय और राजवेषधारी शूद्र तीनों ने अपना अपना परिचय दिया । गाय पृथ्वी थी, बैल धर्म ता और शूद्र कलिराज । धर्मरूपी बैल की सत्य, तप और दयारूपी तीन पैर कलियुग ने मारकर तोड़ डाले थे, केवल एक पैर दान के सहारे वह भाग रहा था, उसको भी तोड़ डालने के लिये कलियुग बराबर उसका पीछा कर रहा था । यह वृत्तांत जानकर परीक्षित को कलि- युग पर बड़ा क्रोध हुआ और वे उसको मार डालने को उद्य त हुए । पीछे उसके गिड़गिड़ाने पर उन्हें उसपर दया आ गई और उन्होंने उसके रहने के लिये ये स्थान बता दिए—जुआ, स्त्री, मद्य, हिंसा और सोना । इन पाँच स्थानों को छोड़कर अन्यत्र न रहने की कलि ने प्रतिज्ञा की । राजा ने पाँच स्थानों के साथ साथ ये पाँच वस्तुएँ भी उसे दे डालीं—मिथ्या, मद, काम, हिंसा और बैर । इस घटना के कुछ समय बाद महाराज परीक्षित एक दिन आखेट करने निकले । कलियुग बराबर इस ताक में था कि किसी प्रकार परीक्षित का खटका मिटाकर अकंटक राज करें । राजा के मुकुट में सोना था ही, कलियुग उसमें घुस गया । राजा ने एक हिरन के पीछे घोड़े डाला । बहुत दूर तक पीछा करने पर भी वह न मिला । थकावट के कारण उन्हें प्यास लग गई थी । एक वृद्ध मुनि मार्ग में मिले । राजा ने उनसे पूछा कि बताओ, हिरन किधर गया है । मुनि मौनी थे, इसलिये राजा की जिज्ञासा का कुछ उत्तर न दे सके । थके और प्यासे परीक्षित को मुनि के इस व्यवहार से बड़ा क्रोध हुआ । कलियुग सिर पर सवार था ही, परिक्षित ने निश्चय कर लिया कि मुनि ने घमंड के मारे हमारी बात का जवाब नही दिया है और इस अपराध का उन्हें कुछ दंड होना चाहिए । पास ही एक मरा हुआ साँप पड़ा था । राजा ने कमान की नोक से उसे उठाकर मुनि के गले में डाल दिया और अपनी राह ली । मुनि के श्रृंगी नाम का एक महातेजत्वी पुत्र था । वह किसी काम से बाहर गया था । लौटते समय रास्ते में उसने सुना कि कोई आदमी उसके पिता के गले में मृत सर्प की माला पहना गया है । कोपशील श्रृंगी ने पिता के इस अपमान की बात सुनते ही हाथ में जल लेकर शाप दिया कि जिस पापत्मा ने मेरे पिता के गले में मृत सर्प की माला पहनाया है, आज से सात दिन के भीतर तक्षक नाम का सर्प उसे डस ले । आश्रम में पहुँचकर श्रृंगी ने पिता से अपमान करनेवाले को उपर्युक्त उग्र शाप देने की बात कही । ऋषि को पुत्र के अविवेक पर दुःख हुआ और उन्होंने एक शिष्य द्वारा परीक्षित को शाप का समाचार कहला भेजा जिसमें वे सतर्क रहें । परीक्षित ने ऋषि के शाप को अटल समझकर अपने लड़के जनमे- जय को राज पर बिठा दिया और सब प्रकार मरने के लिये तैयार होकर अनशन व्रत करते हुए श्रीशुकदेव जी से श्रीमद् भागवत की कथा सुनी । सातवें दिन तक्षक ने आकर उन्हें डस लिया और विष की भयंकर ज्वाला से उनका शरीर भस्म हो गया । कहते हैं, तक्षक जब परीक्षित को डसने चला तब मार्ग में उसे कश्यप ऋषि मिले । पूछने पर मालूम हुआ कि वे उसके विष से परीक्षित की रक्षा करने जा रहे हैं । तक्षक ने एक वृक्ष पर दाँत मारा, वह तत्काल जलकर भस्म हो गया । कश्यप ने अपनी विद्या से फिर उसे हरा कर दिया । इसपर तक्षक ने बहुत सा धन देकर उन्हें लौटा दिया । देवी भागवत में लिखा हैं, शाप का समाचार पाकर परीक्षित ने तक्षक से अपना रक्षा करने के लिये एक सात मंजिल ऊँचा मकान बनवाया और उसके चारों ओर अच्छे अच्छे सर्प-मंत्र- ज्ञाता और मुहरा रखनेवालों को तैनात कर दिया । तक्षक को जब यह मालूम हुआ तब वह घबराया । अंत को परी- क्षित तक पहुँचने को उसे एक उपाय सूझ पड़ा । उसने एक अपने सजातीय सर्प को तपस्वी का रूप देकर उसके हाथ में कुछ फल दे दिए और एक फल में एक अति छोटे कीड़े का रूप धरकर आप जा बैठा । तपस्वी बना हुआ सर्प तक्षक के आदेश के अनुसार परीक्षित के उपर्युक्त सुरक्षित प्रासाद तक पहुँचा । पहरेदारों ने इसे अंदर जाने से रोका, पर राजा को खबर होने पर उन्होंने उसे अपने पास बुलवा लिया और फल लेकर उसे बिदा कर दिया । एक तपस्वी मेरे लिये यह फल दे गया है, अतः इसके खाने से अवश्य उपकार होगा, यह सोचकर उन्होंने और फल तो मंत्रियों में बाँट दिए, पर उसको अपने खाने के लिये काटा । उसमें से एक छोटा कीड़ा निकला जिसका रंग तामड़ा और आँखें काली थीं । परीक्षित ने मंत्रियों से कहा—सूर्य अस्त हो रहा है, अब तक्षक से मुझे कोई भय नहीं । परंतु ब्राह्मण के शाप की मानरक्षा करना चाहिए । इसलिये इस कीड़ी से डसने की विधि पूरी करा लेता हूँ । यह कहकर उन्होंने उस कीड़े को गले से लगा लिया । परीक्षित के गले से स्पर्श होते ही वह नन्हा सा कीड़ा भयंकर सर्प हो गया और उसके दंशन के साथ परीक्षित का शरीर भस्मसात् हो गया । परीक्षित की मृत्यु के बाद, कहते हैं, फिर कलियुग की रोक टोक करनेवाला कोई न रहा और वह उसी दिन से अकंटक भाव से शासन करने लगा । पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिये जनमेजय ने सर्पसत्र किया जिसमें सारे संसार के सर्प मंत्रबल से खिंच आए और यज्ञ की अग्नि में उनकी आहुति हुई ।

२. कंस का एक पुत्र ।

३. अयोध्या का एक राजा ।

४. अनश्व का एक पुत्र ।