परुषा
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प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]परुषा संज्ञा स्त्री॰ [सं॰]
१. काव्य में वह वृत्ति, रीति या शब्दयोजना की प्रणाली जिसमें टवर्गीय द्वित्व, संयुक्त, रेफ और श, ष आदि वर्ण तथा लंबे समास अधिक आए हों । जैसे,— (क) वक्र वक्तृ करि, पुच्छ करि रुष्ट ऋच्छ कपि गुच्छ । सुभट ठट्ट घन घट्ठ सम मर्दहिं रचछन तुच्छ । (ख) मुंड कटत, कहुँ रुंड नटत कहुँ सुंड पटत घन । गिद्ध लसत कहुँ सिद्ध हँसत सुख वृद्धि रसत मन । भूत फिरत करि बूत भिरत, सुर दूत विरत तहँ । चंडि नचत गन मंडि रतन धुनि डंडि मचत जँह । इमि ठानि घोर घमसान अति 'भूषण' तेज कियो अटल । सिवराज साहि सुव खग्गबल दलि अडोल बहलोल दल । विशेष—वीर, रौद्र और भयानक रसों की कविता इस वृत्ति में अच्छी बनती हैं, अर्थात् इस वृत्ति में इन रसों की कविता करने से रस का अच्छा परिपाक होता है ।
२. रावी नदी ।
३. फालसा ।