सामग्री पर जाएँ

पाणिनि

विक्षनरी से

प्रकाशितकोशों से अर्थ

[सम्पादन]

शब्दसागर

[सम्पादन]

पाणिनि संज्ञा पुं॰ [सं॰] 1hdjhshvd प्रसिद्ध मुनि जिन्होंने अष्टाध्यायी नामक प्रसिद्ध ब्याकरण ग्रंथ की रचना की । पेशावर के समीपवर्ती शालातुर (सलात्) नामक ग्राम इनका जन्मस्थान माना जाता है । इनकी माता का नाम दाक्षी और दादा का देवल था । मा्ता के नाम पर इन्हें 'दाक्षीपुत्र' या 'दाक्षेय' तथा ग्राम के नाम पर 'शालातुरीय' कहते हैं । आहिक, प्राणिन, शालंकी आदि इनके और भी कई नाम हैं । इनके समय के विषय में पुरातत्वज्ञों में मतभेद है । भिन्न भिन्न विद्वानों नें इन्हें ईसा के पाँच सौ, चार सौ और तीन सौ वर्ष पहले का माना है । किसी किसी के मत से ये ईसा की दूसरी शताब्दी में विद्यमान थे । अधिकतर लोगों ने ईसा के पूर्व चौथी शताब्दी को ही आपका समय माना है । प्रसिद्ध पुरातत्वज्ञ और विद्वान् डाय सर रामकृष्ण भांडारकर भी इसी मत के पोषक हैं । पाणिनि के पहले शाकल्य , वाभ्रव्य, गालव, शाकटायन आदि आचार्यों ने संस्कृत ब्याकरणों की रचना की थी; पर उनके व्याकरण सर्वांगसुंदर तो क्या पूर्ण भी न थे । इन्होंने बडे़ परिश्रम से सब प्रकार के वैदिक और अपने समय तक प्रचलित सब शब्दों को इकट्ठा कर उनकी व्युत्पत्ति तथा रुप आदि के व्यापक नियम बनाए । इनकी 'अष्टाध्यायी' इतनी उत्तम और सर्वांगसुंदर बनी कि आज प्रायः ढाई हजार वर्षों से व्याकरण विषय पर संस्कृत में जो कुछ लिखा गया प्रायः उसी के भाष्य, टीका या ब्याख्यान के रुप में लिखा गया; एकाध को छोड़कर किसी वैयाकरण को नया ग्रंथ बनाने की आवश्यकता नहीं जान पडी । अष्टाध्यायी इनके प्रकांड शब्द-शास्त्र-ज्ञान और असाधारण प्रतिभा का प्रमाण है । संस्कृत ऐसी भाषा के व्याकरण को जितने संक्षेप में इन्होंने निबटाया है उसे देखकर शब्दशास्त्रज्ञों को दाँतों उँगली दबानी पड़ती है । अष्टाध्यायी के अतिरिक्त 'शिक्षासूत्र', 'गणपाठ', 'धातुपाठ' और 'लिंगानु- शासन' नामक पुस्तकों की भी इन्होंने रचना की है । राज- शेखर आदि कई कवियों ने 'जांबवतीविजय' नामक पाणिनि के एक काव्य का भी उल्लेख किया है जिससे उद्धृत श्लोक इधर उधर मिलते हैं । ह्वेनसांग ने इनकी व्याकरणरचना के विषय में लिखा है कि प्राचीन काल में विविध ऋषियों के आश्रमों में विविध वर्णमालाएँ प्रचलित थीं । ज्यों ज्यों लोगों की आयुमर्यादा घटती गई त्यों त्यों उनके समझने और याद रखने में कठिनाई होने लगी । पाणिनि को भी इसी कठिनाई का सामना करना पडा़ । इसपर उन्होंने एक सुश्रृँखलति और सुब्यव- स्थित शब्दशास्त्र बनाने का निश्चय किया । शब्दविद्या की प्राप्ति के लिये उन्होंने शंकर का आराधन किया जिसपर उन्होंने प्रकट होकर यह विद्या उन्हें प्रदान की । घर आकर पाणिनि ने भगवान् शंकर से पढी हुई विद्या को पुस्तक रुप में निबद्ध किया । तत्कालीन राजा ने उनके ग्रंथ का ब़डा आदर किया । राज्य की समस्त पाठशालाओं में उसके पठन- पाठन की आज्ञा की और घोषणा की कि जो कोई उसे आदि से अंत तक पढेगा उसे एक सहस्र स्वर्णमुद्राएँ इनाम दी जायँगी । इनके बिषय में एक कथा यह भी प्रसिद्ध है कि एक बार ये जंगल में बैठे हुए अपने शिष्यों को पढा़ रहे थे । इतने में एक जंगली हाथी आकर इनके और शिष्यों के बीच से होकर निकल गया । कहते हैं, यदि गुरु और शिष्य के बीच में से जंगली हाथी निकल जाय तो बारह वर्ष का अनध्याय हो जाता है— १२ वर्ष तक गुरु को अपने शिष्यों को न पढा़ना चाहिए । इसी कारण इन्होंने बारह वर्ष के लिये शिष्यों को पढा़ना छोड़ दिया और इसी बीच में अपने प्रसिद्ध ब्याकरण की रचना कर डा़ली ।