पाशुपत

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

पाशुपत ^१ वि॰ [सं॰]

१. पशुपति संबंधी । शिवसंबधी ।

२. पशुपति का ।

३. शिव द्वारा प्रदत्त (को॰) ।

४. शिवकथित (को॰) ।

पाशुपत ^२ संज्ञा पुं॰

१. पशुपति या शिव का उपासक । एक प्रकार का शैव ।

२. शिव का कहा हुआ तंत्रशास्त्र ।

३. अथर्ववेद का एक उपनिषद ।

४. वक पुष्प । अगस्त का फूल ।

पाशुपत दर्शन संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. एक सांप्रदायिक दर्शन जिसका उल्लेख सर्वदर्शनसंग्रह में है । इसे नकुलीश पाशुपति दर्शन भी कहते हैं । विशेष— इस दर्शन में जीव मात्र की 'पशु' संज्ञा है । सब जीवों के अधीश्वर पशुपति शिव हैं । भगवान् पशुपति ने बिना किसी कारण, साधन या सहायता के इस जगत् का निर्माण किया, इससे वे स्वतंत्र कर्ता हैं । हम लोगों से भी जो कार्य होते हैं उनके भी भूल कर्ता परमेश्वर ही हैं, इससे पशुपति सब कार्यों के करण स्वरुप हैं । इस दर्शन में मुक्ति दो प्रकार की कही गई है : एक तो सब दुःखों की अत्यंत निवृत्ति, दुसरी पार- मैश्वर्य प्राप्ति । और दार्शनिकों ने दुःख की अत्यंत निवृत्ति को ही मोक्ष कहा है । किंतु पाशुपत दर्खन कहता है कि केवल दुःख की निवृत्ति ही मुक्ति नहीं हैं, जबतक साथ ही पारमैश्वर्यप्राप्ति भी न हो तबतक केवल दुःखनिवृत्ति से क्या ? पारमैश्वर्य मुक्ति दो प्रकार की शक्तियों की प्राप्ति है— दृक् शक्ति और क्रिया शक्ति । दृक् शक्ति द्वारा सब वस्तुओं और विषयों का ज्ञान हो जाता है, चाहे वे सूक्ष्म से सूक्ष्म, दूर से दूर, व्यवहित से व्यवहित हों । इस प्रकार सर्वज्ञता प्राप्त हो जाने पर क्रिया शक्ति सिद्ध होती है जिसके द्वारा चाहे जिस बात की इच्छा हो वह तुरंत हो जाती है । उसकी इच्छा की देर रहती है । इन दोनों शक्तियों का सिद्ध हो जाना ही पारमैश्वर्य मुक्ति है । पूर्णप्रज्ञ आदि दार्शनिकों तथा भक्तों का यह कहना कि भग- बद्दासत्व की प्राप्ति ही मुक्ति है, विडंबना मात्र है । दासत्व किसी प्रकार का हो, बंधन ही है, उसे मुक्त (छुटकारा) नहीं कह सकते । इस दर्शन में प्रत्यंक्ष, अनुमान और आगम ये तीन प्रमाण माने गए हैं । धर्मार्थसाधक व्यापार को विधि कहते हैं । विधि दो प्रकार की होती है— 'व्रत' और 'द्वार' । भस्मस्नान, भस्म- शयन, जप, प्रदक्षिणा, उपहार आदि को व्रत कहते हैं । शिव का नाम लेकर ठहाकर हँसना, गाल बजाना, गाना, नाचना, जप करना आदि 'उपहार' हैं । व्रत सबके सामने न करना चाहिए । 'द्वार' के अंतर्गत क्राथन, स्पंदन, मंदन, श्रृंगारण, अतित्करण और अवितदभाषण है । सुप्त न होकर भी सुप्त के से लक्षण प्रदर्शन को क्राथन; जैसे हवा के धक्के से शरीर झोंके खाता है उसी प्रकार झोंके खिलाने को स्पंदन; उन्नत्त के समान लड़खडा़ते हुए पैर रखने को मंदन, सुंदरी स्त्री देख वास्तव में कामार्त न होकर कामुकों की सी चेष्टा करने को श्रृंगारण; अनिवेकियों के समान लोकनिंदित कर्मों की चेष्टा को अवितत्करण तथा अर्थहीन और व्याहत शब्दों के उच्चारण को अवितदभाषण कहते हैं । चित्त द्वारा आत्मा और ईश्वर के संबंध का नाम 'योग' है ।