पितृ
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]पितृ संज्ञा पुं॰ [सं॰]
१. दे॰ 'पिता' ।
२. किसी व्यक्ति के मृत बाप दादा परदादा आदि ।
३. किसी व्यक्ति का ऐसा मृत पूर्वपूरुष जिसका प्रेतत्व छुट चुका हो । विशेष—प्रेत कर्म या अंत्येष्टि कर्म संबंधी पुस्तकों में माना गया है कि अरण और शवदाह के अनंतर मृत व्यक्ति तो आतिवाहिक शरीर मिलता है । इसके उपरांत जब उसके पुत्रादि उसके निमित्त दशगात्र का पिंडदान करते है तब दशपिंडों से क्रमशः उसके शरीर के दश अंग गठित होकर उसको एक नया शरीर प्राप्त होता है । इस देह में उसकी प्रेत संज्ञा होती है । षोडश श्राद्ब और सपिंडन के द्बारा क्रमशः उसका यह शरीर भी छुट जाता है और वह एक नया भोगदेह प्राप्त कर अपने बाप दादा और परदादा आदि के साथ पितृलोक का निवासी बनता है अथवा कर्मसंस्कारा- नुसार स्वर्ग नरक आदि में सुखदुःखादि भोगता है । इसी अवस्था में उसको पितृ कहते है । जबतक प्रेतभाव बना रहता है तब तक मृत व्यक्ति पितृ संज्ञा पाने का अधिकारी नहीं होता । इसी से सपिंडीकरण के पहले जहाँ जहाँ आवश्यकता पड़ती है प्रेत नाम से ही उसका संबोधन किया जाता है । पितरों अर्थात् प्रेतत्व से छूटे हुए पूर्वजों की तृप्त ि के लिये श्राद्ब, तर्पण आदि पुत्रादि का कर्तव्य माना गया है। दे॰ 'क्षाद्ब' ।
४. एक प्रकार के देवता जो सब जिवों के आदिपूर्वज माने गए है । विशेष—मनुस्मृति में लिखा है कि ऋषियों से पितर, पितरों से देवता और देवताओं से संपूर्ण स्थावर जंगम जगत की उत्पत्ति हुई है। ब्रह्मा के पूत्र मनु हुए । मनु के मरोचि, अग्नि आदि पुत्रों को पुत्रपरंपरा ही देवता, दानव, दैत्य, मनुष्य आदि के मूल पूरूष या पितर है । विराट्पुत्र सोमदगण साध्यगण के; अत्रिपुत्र वर्हिषदगण दैत्य, दानव, यक्ष, गंधर्व, सर्प, राक्षस, सूपर्ण, किन्नर और मनुष्यों के; कविपुत्र सोमपा ब्राह्मणों के; अगिरा के पुत्र हविर्भुज क्षत्रियों के; पुलस्स्य के पुत्र आज्यपा वैश्यों के और वशिष्ठ- पुत्र कालिन शुद्रों के पितर हैं । ये सब मुख्य पितर है । — इनके पुत्र पौत्रादि भी अपने अपने वर्गों के पितर हैं । द्विजों के लिये देवकार्य से पितृकार्य का अधिक महत्व है । पितरों के निमित्त जलदान मात्र करने से भी अक्षय सुख मिलता है (मनु॰ ३ । १४९४—२०३) ।