पुलिन्द

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

पुलिंद संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. भारतवर्ष की एक प्राचीन असभ्य जाति । विशेष— ऐतरेय ब्राह्मण में लिखा है कि विश्वामित्र के जिन पुत्रों ने शुनःशेप को ज्येष्ठ नहीं माना था वे ऋषि के शाप से पतित हो गए । उन्हीं से पुलिंद, शबर आदि बर्बर जातियों की उत्पात्ति हुई । रामायण, महाभारत, पुराण, काव्य सबमें इस जाति का उल्लेख है । महाभारत सभापर्व में महादेव के दिग्विजय के संबंध में लिखा है कि उन्होंने अर्बुक राजाओं को जीतकर वाताधिप को वश में किया और उसके पीछे पुलिंदों को जातकर वे दक्षिण की ओर बढे़ । कुछ लोगों के अनुमान के अनुसार यदि अर्बुक को आबू पहाड़ और वात को वातापिपुरी (बादामी) मानें तो गुजरात और राजपुताने के बीच पुलिंद जाति का स्थान ठहरता है । महाभारत (भीष्मपर्व) में एक स्थान पर 'सिंधुपुलिंदका;' भी है इससे उनका स्थान सिंधु देश के आसपास भी सूचित होता है । वामनपुराण में पुलिंदों की उत्पत्ति की एक कथा है कि भ्रुणहत्या के प्रायश्चित्त के लिये इंद्र ने कालंजर के पास तपस्या की थी और उनके साथ उनके सहचर भी भूलोक में आए थे । उन्हीं सहचरों की संताति से पुलिंद हुए जो कालंजर और हिमाद्रि ते बीच बसते थे । अशोक के शहबाजगढ़ी के लेख में भी पुलिंद जाति का नाम आया है ।

२. वह देश जहाँ पुलिंद जाति बसती थी ।

३. जहाज का मस्तूल (को॰) ।