पोत
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]पोत ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰]
१. पशु पक्षी आदि का छोटा बच्चा ।
२. छोटा पौधा ।
३. वह गर्भस्थ पिंड जिसपर झिल्ली न चढी़ हो । यौ॰—पोतज = जो जरायुज न हो ।
४. दस वर्ष का हाथी का बच्चा ।
५. घर की नींव ।
६. कपडा़ । पट ।
७. कपडे़ की बुनावट । जैसे, जैसे—इस कपडे़ का पोत अच्छा नहीं है ।
८. नौका । नाव ।
९. जहाज । यौ॰—पोतधारी । पोतप्लव = मल्लाह । माझी । = पोतभंग = पोत का टूटना । पोतरक्ष = पतवार । पोतवाणिक । पोतवाह ।
पोत ^२ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ प्रोता, प्रा॰ पोता]
१. माला या गुरिया का दाना ।
२. काँच की गुरिया का दाना । यह अनेक रंगों का होता है और कोदों के दाने के बराबर होता है । निम्न वर्ग की स्त्रियाँ इसे तागे में गूँथकर गले में पहनती हैं । इसे लोग छडी़ और नैच आदि पर भी लपेटते हैं । उससे सोनार गहनों को भी साफ करते हैं । उ॰—(क) पतिव्रता मैली भली गले काँच की पोत । सब सखियन में देखिए ज्यों सूरज की जोत ।—कबीर (शब्द॰) । (ख) झीना कामरि काज कान्ह ऐसी नहिं कीजै । काँच पोत गिर जाइ नंद घर गयौ न पूजै ।—सूर (शब्द॰) । (ग) फिरि फिरि कहा सिखावत मौन ।...यह मत जाइ तिन्हैं तुम सिखवो जिनहीं यह मत सोहत । सूर आज लौं सुनी न देखी पोत पूतरी पोहत ।—सूर (शब्द॰) ।
पोत ^३ संज्ञा पुं॰ [सं॰ प्रवृत्ति, प्रा॰ पउत्ति] १ ढंग । ढब । प्रवृत्ति । उ॰—नीच हिए हुलसे रहैं गहे गेंद के पोत । ज्यों ज्यों माथे मारिए त्यों त्यों ऊँचे होत ।—बिहारी (शब्द॰) ।
२. बारी । दाँव । पारी । अवसर । ओसरी । मुहा॰—पोत पूरा करना = कमी पूरी करना । ज्यों त्यों करके किसी काम को पूरा करना । पोत पूरा होना = कमी पूरी होना । ज्यों त्यों करके किसी काम का पूरा होना ।
पोत ^४ संज्ञा पुं॰ [फा़॰ फोत] जमीन का लगान । मुकर ।