प्रत्यक्ष
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]प्रत्यक्ष ^१ वि॰ [सं॰]
१. जो देखा जा सके । जो आँखों के सामने हो । उ॰— स्वप्न था वह जो देखा, देखूँगी फिर क्या अभी ? इस प्रत्यक्ष से मेरा परित्राण कहाँ अभी ।— साकेत, पृ॰ ३०७ ।
२. जिसका ज्ञान इंद्रियों के द्वारा हो सके । जो किसी इंद्रिय की सहायता से जाना जा सके ।
३. सुस्पष्ट । साफ (को॰) ।
प्रत्यक्ष ^२ संज्ञा पुं॰ चार प्रकार के प्रमाणों में से एक प्रमाण जो सबसे श्रेष्ठ माना जाता है । विशेष—गौतम ने न्यायसूत्र में कहा है कि इंद्रिय के द्वारा किसी पदार्थ का जो ज्ञान होता है, वही प्रत्यक्ष है । जैसे, यदि हमें सामने आगे जलती हुई दिखाई दे अथवा हम उसके ताप का अनुभव करें तो यह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि 'आग जल रही है' । इस ज्ञान में पदार्थ और इंद्रिय का प्रत्यक्ष संबंध होना चाहिए । यदि कोई यह कहे कि 'वह किताब पुरानी है' तो यह प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है; क्योंकि इसमें जो ज्ञान होता है, वह केवल शब्दों के द्वारा होता है, पदार्थ के द्वारा नहीं, इसिलिये यह शब्दप्रमाण के अंतर्गत चला जायगा । पर यदि वही किताब हमारे सामने आ जाय और मैली कुचैली या फटी हुई दिखाई दे तो हमें इस बात का अवश्य प्रत्यक्ष ज्ञान हो जायगा कि 'यह किताब पुरानी है' । प्रत्यक्ष ज्ञान किसी के कहे हुए शब्दों द्वारा नहीं होता, इसी से उसे अव्यपदेश्य कहते हैं । प्रत्यक्ष को अव्यभिचारी इसलिये कहते हैं कि उसके द्वारा जो वस्तु जैसी होती है उसका वैसा ही ज्ञान होता है । कुछ नैयायिक इस ज्ञान के करण को ही प्रमाण मानते हैं । उनके मत से 'प्रत्यक्ष प्रमाण' इंद्रिय है, इंद्रिय से उत्पन्न ज्ञान 'प्रत्यक्ष ज्ञान' है । पर अव्यपदेश्य पद से सूत्रकार का अभिप्राय स्पष्ट है कि वस्तु का जो निर्विकल्पक ज्ञान है वही प्रत्यक्ष प्रमाण है । नवीन ग्रंथकार दोनों मतों को मिलाकर कहते हैं कि प्रत्यक्ष ज्ञान के करण अर्थात प्रत्यक्ष तीन प्रमाण हैं— (१) इंद्रिय, (२) इंद्रिय का संबंध और (३) इंद्रियसंबंध से उत्पन्न ज्ञान । पहली अवस्था में जब केवल इंद्रिय ही करण हो तो उसका फल वह प्रत्यक्ष ज्ञान होगा जो किसी पदार्थ के पहले पहल सामने आने से होता है । जैसे, वह सामने कोई चीज दिखाई देती है । इस ज्ञान को 'निर्विकल्पक ज्ञान' कहते हैं । दूसरी अवस्था में यह जान पड़ता है कि जो चीज सामने है, वह पुस्तक है । यह 'सविकल्पक ज्ञान' हुआ । इस ज्ञान का कारण इंद्रिय का संबंध है । जब इंद्रिय के संबंध से उत्पन्न ज्ञान करण होता है, तब यह ज्ञान कि यह किताब अच्छी है अथवा बुरी है, प्रत्यक्ष ज्ञान हुआ । यह प्रत्यक्ष ज्ञान ६ प्रकार का होता है —(१) चाक्षुष प्रत्यक्ष, जो किसी पदार्थ के सामने आने पर होता है । जैसे, यह पुस्तक नई है । (२) श्रावण प्रत्यक्ष, जैसे, आँखें बंद रहने पर भी घंटे का शब्द सुनाई पड़ने पर यह ज्ञान होता है कि घंटा बजा । (३) स्पर्श प्रत्यक्ष, जैसे बरफ हाथ में लेने से ज्ञान होता है कि वह बहुत ठंढी है । (४) रसायन प्रत्यक्ष, जैसे, फल खाने पर जान पड़ता है कि वह मीठा है अथवा खट्टा है । (५) घ्राणज प्रत्यक्ष, जैसे, फूल सूँघने पर पता लगता है कि वह सुगंधित है और (६) मानस प्रत्यक्ष जैसे, सुख, दुःख, दया आदि का अनुभव ।
प्रत्यक्ष ^३ क्रि॰ वि॰ आँखों के आगे । सामने । जैसे, प्रत्यक्ष दिखलाई पड़ रहा है कि उस पार पानी बरसता है ।