प्रयाग

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

प्रयाग संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. बहुत से यज्ञों का स्थान ।

२. एक प्रसिद्ध तीर्थ जो गंगा यमुना के संगम पर है । विशेष—जान पड़ता है जिस प्रकार सरस्वती नदी के तट पर प्राचीन काल में बहुत से यज्ञादि होते थे उसी प्रकार आगे चलकर गंगा जमुना के संगम पर भी हुए थे । इसी लिये प्रयाग नाम पड़ा । यह तीर्थ बहुत प्राचीन काल से प्रसिद्ध है और यहाँ के जल से प्राचीन राजाओं का अभिषेक होता था । इस बात का उल्लेख वाल्मीकि रामायण में है । वन जाते समय श्रीरामचंद्र प्रयोग में भारद्वाज ऋषि के आश्रम पर होते हुए गए थे । प्रयोग बहुत दिनों तक कोशल राज्य के अंतर्गत था । अशोक आदि बौद्ध राजाओं के समय यहाँ बौद्धों के अनेक मठ और विहार थे । अशोक का स्तंभ अबतक किले के भीतर खड़ा है जिसमें समुद्रगुप्त की प्रशस्ति खुदी हुई है । फाहियान नामक चीनी यात्री सन् ४१४ ई॰ में आया था । उस समय प्रयाग कोशल राज्य में ही लगता था । प्रयाग के उस पार ही प्रतिष्ठान नामक प्रसिद्ध दुर्ग था जिसे समुद्रगुप्त ने बहुत द्दढ़ किया था । प्रयाग का अक्षयवट बहुत प्राचीन काल से प्रसिद्ध चला आता है । चीनी यात्री हुएन्सांग ईसा की सातवीं शताब्दी में भारतवर्ष में आया था । उसने अक्षयवट को देखा था । आज भी लाखों यात्री प्रयाग आकर इस वट का दर्शन करते है जो सृष्टि के आदि से माना जाता है । वर्तमान रूप में जो पुराण में मिलते हैं उनमें मत्स्यपुराण बहुत प्राचीन और प्रामाणिक माना जाता है । इस पुराण के १०२ अध्याय से लेकर १०७ अध्याय तक में इस तीर्थ के माहात्म्य का वर्णन है । उसमें लिखा है कि प्रयाग प्रजापति का क्षेञ है जहाँ गंगा और यमुना बहती हैं । साठ सहस्त्र वीर गंगा की और स्वयं सूर्य जमुना की रक्षा करते हैं । यहाँ जो वट है उसकी रक्षा स्वयं शूलपाणि करते हैं । पाँच कुंड हैं जिनमें से होकर जाह्नवी बहती है । माघ महीने में यहाँ सब तीर्थ आकर वास करते हैं । इससे उस महीने में इस तीर्थवास का बहुत फल है । संगम पर जो लोग अग्नि द्वारा देह विसर्जित करेत हैं वे जितने रोम हैं उतने सहस्र वर्ष स्वर्ग लोक में वास करते हैं । मत्स्य पुराण के उक्त वर्णन में ध्यान देने की बात यह है कि उसमें सरस्वती का कहीं उल्लेख नहीं है जिसे पीछे से लोगों नेट त्रिवेणी के भ्रम में मिलाया है । वास्तव में गंगा और जमुना की दो ओर से आई हुई धाराओं और एक दोनों की संमिलित धारा से ही त्रिवेणी हो जाती है ।

३. यज्ञ (को॰) ।

४. इंद्र (को॰) ।

५. घोड़ा (को॰) ।