प्रलय

विक्षनरी से


हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

प्रलय संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. लय को प्राप्त होना । विलीन होना । न रह जाना ।

२. भु आदि लोकों का न रह जाना । संसार का तिरोभाव । जगत् के नाना रुपों का प्रकृति में लीन होकर मिट जाना । विशेष—पुराणों में संसार के नाश का वर्णन कई प्रकार से आया है । कुर्म पुराण के अनुसार प्रलय चार प्रकार का होता है—नित्य, नैमित्तिक, प्राकृत और आत्यंतिक । लोक में जो बराबर क्षय हुआ करता है वह 'नित्य प्रलय' है । कल्प के अंत में तीनों लोकों का जो क्षय होता है वह नैमित्तिक या 'ब्राह्य प्रलय' कहलाता है । जिस समय प्रकृति के महदादि विशेष तक विलीन हो जाते हैं उस समय 'प्राकृतिक प्रलय' होता है । ज्ञान की पूर्णवस्था प्राप्त होने पर ब्रह्म या चित् में लीन हो जाने का नाम 'आत्यंतिक प्रलय' है । विष्णु पुराण में 'नित्य प्रलय' का उल्लेख नहीं है । ब्रह्म और प्राकृत प्रलयों के वर्णन पुराणों में एक ही प्रकार के हैं । अनावृष्टि द्धारा चराचर का नाश, बारह सूर्यं के प्रचंड ताप से जल का शोषण और सब कुछ भस्म होना, फिर लगातार घोर वृष्टि होना और सब जलमय हो जाना, केवल प्रजापति का या विष्णु का रह जाना वर्णित है । एक हजार चतुर्युग का ब्रह्मा का एक दिन और उतने ही की एक रात होती है इसी रात में वह प्रलय होता है जिसे ब्रह्या प्रलय कहते हैं । प्राकृतिक प्रलय में, पहले जल पृथ्वी के गंधगुण को विलनी करता है जिससे पृथ्वी नहीं रह जाती, जल रह जाता है । फिर जल का गुण जो रस है उसे अग्नि विलीन कर लेती है जिससे जल नहीं रह जाता, अग्नि वायु ही रह जाती है; फिर वायु का गुण जो स्पर्श है उसे आकाश विलीन कर लेता है और केवल आकाश ही रह जाता है जिसका गुण शब्द है । फिर यह शब्द भी अहंकार तत्व में और अहकार तत्व महत्तत्व में और अंत में महत्तत्व भी प्रकृति में लीन हो जाता है । नौयायिक दो प्रकार के प्रलय मानते है—खंडप्रलय और महाप्रलय । पर नष्य न्यायवाले महाप्रलय नहीं मानते । सांख्य के अनुसार सृष्टि और प्रलय दोनों प्रकृति के परिणाम है । प्रकृति का परिणाम दो प्रकार का होता है—स्वरुप परिणाम और विरुप परिणाम । प्राकृति के उत्तरोत्तर विकार द्धारा जो विरुप परिणाम होता है उससे सृष्टि होती है और सृष्टि का जो फिर उलटा परिणाम प्रकृति के स्वरुप की ओर होने लगता है उससे प्रलय होता है । जब सत्व सत्व में, रजस् रजस् में, तमस् तमस् में मिल जाता है तब प्रलय होता है । स्वरुप परिणाम जब होने लगता है उस समय पहले महाभुत पंचतन्मात्र में विलीन होते हैं, फिर पंचतन्मात्र और एकादस इंद्रियाँ अहंकार तत्व में, फिर यह अहंकार महत्तत्व में और अंत में महत्तत्व भी प्रकृति में लीन हो जाता है । उस समय एकमात्र प्रकृति ही रह जाती है । इस प्रकार संसार अपने मुल कारण प्रकृति में लय को प्राप्त हो जाता है ।

३. साहित्य में एक सात्विक भाव जिससे किसी वस्तु में तन्मय होने से पूर्व स्मृति का लोप हो जाता है ।

४. मुर्छा । बेहोशी ।

५. मृत्यु । नाश (को॰) ।

६. ओंकार (को॰) ।

७. व्यापक संहार या विनाश (को॰) ।