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फंद

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प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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फंद संज्ञा पुं॰ [सं॰ बन्ध, हि॰ फंदा]

१. बंध । बंधन । उ॰— (क) जा का गुरु है अंधरा चाला खरा निरंध । अंधे को अँधा मिला परा काल के फंद ।—कबीर (शब्द॰) । (ख) सुनत वचन प्रिय रसाल जागे अतिशय दयाल भागे जंजाल विपुल दुख कर्दम टारे । त्यागे भ्रम फंद द्वंद निरखि के मुखारविंद सूरदास अति अनंद मेटे मद भारे ।— सूर (शब्द॰) ।

२. रस्सी या बाल आदि का फँदा । जाल । फाँस । उ॰— (क) यह सुनि मन गुनि सपथ बड़ि बिहँसि उठी मति मंद । भूषन सजति विलोकि मृग मनहु किरतिनि फंद ।—तुलसी (शब्द॰) (ख) हरि पद कमल को मकरंद । मलिन मति मन मधुप परि हरि विषय नर रस फंद ।—(शब्द॰) ।

३. छल । धोखा । उ॰— हनिहीं निशाचर वृंद । बचिहैं न करि बहु फंद ।— रघुराज (शब्द॰) ।

४. रहस्य । मर्म । उ॰— पंडित केरी पोथियाँ ज्यों तीतर को ज्ञान । औरन शकुन बतावहीं अपना र्फद न जान ।— कबीर (शब्द॰) ।

५. दुःख । कष्ट । उ॰— शिव शिव जपत मन आनंद । जाहि सुमिरे विघन विन- शत कटत जम को फंद (शब्द॰) ।

६. नथ की काँटी फँसाने का फँदा । गूँज । उ॰—मदमाती मनोज के आसव सों अँग्र जासु मनों रँग केसरि को । सहजे नथ नाक ते खोलि धरी कह्यो कौन धों फंद या सेसरि की ।— कमलपति (शब्द॰) ।