फन्दा
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]फंदा संज्ञा पुं॰ [सं॰ पाशा वा बन्ध]
१. रस्सी या बाल आदि की बनी हुई फाँस । रस्सी, तागे आदि का घेरा जो किसी को फँसाने के लिये बनाया गया हो । फनी । फाँद । मुहा॰— फंदा देना या लगाना = गाँठ लगाकर फंदा तैयार करना । यौ॰— फंददार = एक प्रकार की बेल जो गलीचे और कसींदे आदि में बुनी या काढ़ी जाती है ।
२. पाश । फाँस । जाल । उ॰—(क) अक्षर आस ते फंदा परे । अक्षर लखे तो फंदा टरे ।—कबीर (शब्द॰) । (ख) ठगति फिरति ठगिनी तुम नारि ।...फँसिहारिनि, बटपारिनि हम भई आपुन भए सुधर्मा भारि । फंदा फाँस कमान बान सौ, काहूँ देख्यो डारत मारि ।— सूर, १० । १५८१ । मुहा॰—किसी पर फंदा पड़ना = जाल पड़ना । फँसना । फंदा लगना = (१) जाल फैलना । (२) ढंग लगना । धोखा चल जाना । जैसे,— इनपर तुम्हारा फंदा नहीं लगेगा । फंदा लगाना = (१) जाल फैलाना । किसी की फसाना के लिये जाल लगाना । (२) किसी को अपनी चाल में लाने का प्रयत्न करना । धोखा देना ।फंदे में पढ़ना =(१) धोखे में पड़ना । जाल में फँसना । (२) वशीभूत होना । किसी के वश में होना ।
३. बंधन । दुःख । कष्ट । उ॰— परिवा छट्ठ एकादस नंदा । दुइज सत्तिमी द्वादस फंदा ।— जायसी (शब्द॰) ।