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फरकना

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प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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फरकना पु क्रि॰ अ॰ [हिं॰] फलाँगना । फाँद जाना । लाँघ जाना । उ॰—बूड़े थे परि ऊबरे गुर की लहरि चमंकि । भेरा देख्या जरजरा, (तब) ऊतरि पड़े फरंकि ।—कबीर ग्रं॰, पृ॰ ३ ।

फरकना पु † ^१ क्रि॰ अ॰ [सं॰ स्फुरण]

१. शरीर के किसी अवयव में अचानक फरफराहट या स्फुरण होना । फड़कना । उड़ना । फड़फड़ाना । दे॰ 'फड़कना' । उ॰—(क) सुनु मंथरा बात फुर तोरी । दहिन आँखि नित फरकति मोरी ।—तुलसी (शब्द॰) । (ख) कुच भुज अधर नयन फरकत हैं बिनहिं बात अंचल ध्वज डोली । सोच निवारि करो मन आनँद मानों भाग्य दशा विधि खोली ।—सूर (शब्द॰) । (ग) सुमिरन एसा कीजिए दूजा लखे न कोय । ओठ न फरकत देखिए प्रेम राखिए गोय ।—संतवाणी॰, पृ॰ १०० ।

२. आपसे आप निकलता या बाहर आना । स्फुरित होना । उमड़ना । उ॰—मीठी अनूठी कढ़ैं बतियाँ सुनि सौतिनि का छतियाँ दरकी परैं । कोकिल कूकनि की का चली, कलहंसनहूँ के हिए धरकी परैं । प्यारी के आनन तेरो कढ़ै तेहि की उपमा द्विज को फरकी परै । धार सुंधार सुधारस की सुमनों बसुधा ढरकी परै ।—द्विज (शब्द॰) । (ख) लरिबे को दोऊ भुजा, फरकैं अति सिहारयँ । कहत बात कासों लरैं, कापै अब चढ़ि जायँ ।—लल्लु (शब्द॰) ।

३. उड़ना । उ॰—ध्वजा फरक्कै शून्य में बाजै अनहद तूर । तकिया है मैदान में पहुँचैगा कोई सूर ।—कबीर (शब्द॰) ।

फरकना † ^२ क्रि॰ अ॰ [अ॰ फरक (=अंतर)]

१. अलग होना । दूर होना ।

२. फटकर पृथक् हो जाना ।