फरजी

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

फरजी संज्ञा पुं॰ [फा॰ फरजी] शतरंज का एक मोहरा जिसे रानी या वजीर भी कहते हैं । वजीर । उ॰—(क) बड़ो बड़ाई ना तजै छोटे बहु इतराय । ज्यों प्यादा फरजो भयो टेढ़ो टे़ढ़ो जाय ।—रहीम (शब्द॰) । (ख) पहले हम जाय दियो कर में, तिय खेलत ही घर में फरजी । बघुवंत इकंत पढ़ो, तबही रतिकंत के बानन लै बरजी । बिलखी हमें और सुनाइबे को कहि तोष लख्यो सिगरी भरजी । गरजी ह्वै दियो उन पान हमें पढ़ि साँवरे रावरे की अरजी ।—तोष (शब्द॰) । विशेष—यह मोहरा खेल भर में बड़ा उपयोगी माना जाता है । शतरंज के किसी किसी खेल में यह टेढ़ा चलता है और शेष में प्रायः सीधा और टेढ़ा दोनों प्रकार की चाल आगे और पीछे दोनों ओर चलता है ।

फरजी ^२ वि॰ जो असली न हो बल्कि मान लिया गया हो । नकली । बनावटी । जैसे,—वे अपना एक फरजी नाम रखकर दरबार में पहुँचे ।