फाल

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

फाल ^१ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰] लोहे की चौकोर लंबी छड़ जिसका सिरा नुकीला और पैना होता है और जो हल की अँकड़ी के नीचे लगा रहता है । जमीन इसी से खुदती है । कुस । कुसी । विशेष—संस्कृत में यह शब्द पुं॰ है ।

फाल ^२ संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. महादेव ।

२. बलदेव ।

३. फावड़ा ।

४. नौ प्रकार की दैवी परीक्षाओं या दिव्यों में से एक जिसमें लोहे की तपाई हुई फाल अपराधी को चटाते थे और जीभ के जलने पर उसे दोषी और न जलने पर निर्दोष समझते थे ।

फाल ^३ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ फलक या हिं॰ फाड़ना]

१. किसी ठोस चीज का काट या कतरा हुआ पतले दल का टुकड़ा । जैसे, सुपारी की फाल ।

२. कटी सुपारी । छालिया ।

फाल ^४ संज्ञा पुं॰ [सं॰ प्लव] चलने या कूदने में एक स्थान से उठकर आगे के स्थान में पैर डालना । डग । फलाँग । उ॰— (क) धनि बाल सुचाल सो फाल भरे लौ मही रँग लाल में बोरति हैं ।—सेवक (शब्द॰) । (ख) सौ जोजन मरजाद सिंध के करते एक फाल ।—धरम॰ श॰, पृ॰ ८४ । मुहा॰—फाल भरना = कदम रखना । डग भरना । फाल बाँधना = फलाँग मारना । कूद कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना = उछलकर लाँधना । उ॰—कहै पद्माकर त्यों हुकरत फुकरत, फैलत फलात, फाल बाँधत फलका मैं ।—पद्माकर (शब्द॰) ।

२. चलने या कूदने में उस स्थान से लेकर जहाँ से पैर उठाया जाय उस स्थान तक का अंतर जहाँ पैर पड़े । कदम भर का फालसा । पैंड़ । उ॰—(क) तीन फाल वसुधा सब कीनी सोइ वामन भगवान ।—सtर (शब्द॰) । (ख) धरती करते एक पग, दरिया करते फाल । हाथन परबत तोलते तेऊ खाए काल ।—कबीर (शब्द॰) ।

फाल ^५ संज्ञा स्त्री॰ [अ॰ फा़ल] सगुन । शकुन [को॰] । यौ॰—फालगी = सगुन विचारनेवाला ।