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फिर

विक्षनरी से

प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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फिर इस सोने या चाँदी में मिले हुए पारे को स्वेदनविधि से भाप के रूप में अलग कर देते हैं और खालिस सोना या चाँदी रह जाता है । बात यह है कि इन धातुओं में पारे के प्रति रासायनिक प्रवृत्ति या राग होता है । इसी विशेषता के कारण पारा रसराज कहलाता है और इसके योग से धातुओं पर अनेक प्रकार की क्रियाएँ की जाती हैं । पारे के योग से, राँगे, सोने, चाँदी आदि को दूसरी धातु पर करई या मुलम्मे के रूप में चढ़ाते हैं । जिस धातु पर मुलम्मा चढ़ाना होता है उसपर पहले पारे-शोरे से संघटित रस मिलाते हैं, फिर १ भाग सोने और ८ भाग पारे का मिश्रण तैयार करके हलका लेप कर देते हैं । गरमी पाकर पारा तो उड़ जाता हैं, सोना लगा रह जाता है । पारे पर गरमी का प्रभाव सबसे अधिक पड़ता है इसी से गरमी नामने के यंत्र में उसका व्यवहार होता है । इन सब कामों के अतिरिक्त औषध में भी पारे का बहुत प्रयोग होता है । पुराणों और वैद्यक की पोथियों में पारे की उत्पत्ति शिव के वीर्य से कही गई है और उसका बड़ा माहात्म्य गाया गया है, यहाँ तक कि यह ब्रह्म या शिवस्वरूप कहा गया है । पारे को लेकर एक रसेश्वर दर्शन ही खड़ा किया गया है जिसमें पारे ही से सृष्टि की उत्पत्ति कही गई है और पिंडस्थैर्य (शरीर को स्थिर रखना) तथा उसके द्वारा मुक्ति की प्राप्ति के लिये रससाधन ही उपाय बताया गया है । भावप्रकाश में पारा चार प्रकार का लिखा गया है— श्वत, रक्त, पीत और कृष्ण । इसमें श्वेत श्रेष्ठ है । वैद्यक में पारा कृमि और कुष्ठनाशक, नेत्रहितकारी, रसायन, मधुर आदि छह रसों से युक्त, स्निग्ध, त्रिदोषनाशक, योग- वाही, शुक्रवर्धक और एक प्रकार से संपूर्ण रोगनाशक कहा गया है । पारे में मल, वह्नि, विष, नाम इत्यादि कई दोष मिले रहते हैं, इससे उसे शुद्ध करके खाना चाहिए । पारा शोधने की अनेक विधियाँ वैद्यक के ग्रंथों में मिलती हैं । शोधन कर्म आठ प्रकार के कहे गए हैं— स्वेदन, मर्दन, उत्थापन, पातन, बोधन, नियामन और दीपन । भावप्रकाश में मूर्छन भी कहा गया है जो कुछ ओषधियों के साथ मर्दन का ही परिणाम है । पर्या॰—रसराज । रसनाथ । महारस । रस । महातेजभ् । रसेलह । रसोत्तम । सुतराट् । चपल । चैत्र । शिवबीज । शिव । अमृत । रसेंद्र । लोकेश । दुर्धर । पुरभु । रुद्रज । हरतेजः । रसधातु । स्कंद । देव । दिव्यरस । यशोद । सूतक । सिद्धधातु । पारत । हरवीज । मुहा॰— पारा पिलाना =(१) किसी वस्तु में पारा भरना । (२) किसी वस्तु को इतना भारी करना जैसे उसमें पारा भरा हो । भारी करना । वजनी करना ।

फिर क्रि॰ वि॰ [हीं॰ फिरना]

१. जैसा एक समय हो चुका है वैसा ही दूसरे समय भी । एक बार और । दोबारा । पुनः । जैसे,—इस बार तो छोड़ देता हुँ, फिर ऐसा काम न करना । उ॰—नैन नचाय कही मुसकाय लला फिर आइयो खेलन होरी ।—पद्माकर (शब्द॰) । यौ॰—फिर फिर = बार बार । कई दफा । उ॰—फिर फिर बूझति, कहि कहा, कह्यो साँवरे गात । कहा करत देखे कहा अली । चली क्यों जात ?—बिहारी (शब्द॰) ।

२. आगे किसी दूसरे वक्त । भविष्य में किसी समय । और वक्त । जैसे,—इस समय नहीं है फिर ले जाना ।

३. कोई बात हो चुकने पर । पीछे । अनंतर । उपरांत । बाद में । जैसें,—(क) फिर क्या हुआ ? (ख) लखनऊ से फिर कहाँ जाओगे ? उ॰—मेरा मारा फिर जिऐ तो हाथ न गहौं कमान ।— कबीर (शब्द॰) ।

४. तब । उस अवस्था में । उस हालत में । जैसे,—(क) जरा उसे छेड़ दो फिर कैसा झल्लाता है । (ख) उसका काम नकल जायगा फिर तो वह किसी से बात न करेगा । उ॰—(क) सुनतै धुनि षीर छुटै छन में फिर नेकहु राखत चेत नहीं ।—हनुमान (शब्द॰) । (ख) तुम पितु ससुर सरिस हितकारी । उतर देउँ फिर अनुचित भारी ।—तुलसी (शब्द॰) । मुहा॰—फिर क्या है ? = तब क्या पूछना है । तब तो किसी बात की कलर ही नहीं है । तब तो कोई अड़चन ही नहीं है । तब तो सब बात बनी बनाई है ।

५. देश संबंध में आगे बढ़कर । और चलकर । आगे और दूरी पर । जैसे,—उस बाग के आगे फिर क्या है ?

६. इसके अतिरिक्त । इसके सिवाय । जैसे,—वहाँ जाकर उसे किसी बात का पता न लगेगा, फिर यह भी तो है कि वह जाय या न जाय ।