फुलेल

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

फुलेल संज्ञा पुं॰ [हिं॰ फूल + तेल]

१. फूलों की महक से बासा हुआ तेल जो सिर में लगाने के काम में आता है । सुगंधयुक्त तैल । उ॰—(क) उर धारी लठै छूटी आनन पै, भीजी फुलेलन सों, आली हरि संग केलि ।—सूर (शब्द॰) । (ख) रे गंधी, मतिमंद तू अतर दिखावत काहि । करि फुलेल को आचमन मीठो कहत सराहि ।—बिहारी (शब्द॰) । विशेष—फुलेल बनाने के लिये तिल को धोकर छिलका अलग कर देते हैं । ताजे फूलों की कलियाँ चुनकर बिछा दी जाती हैं और उनके ऊपर तिल छितरा दिए जाते हैं । तिलों के ऊपर फिर फूलों की कलियाँ बिछाई जाती हैं । कलियों के खिलने पर फूलों की महक तिलों में आ जाती है । इस प्रकार कई बार तिलों को फूलों की तह पर फैलाते है । तिल फूलों में जितना ही अधिक बासा जाता है उतनी ही अधिक सुगंध उसके तेल में होती है । इस प्रकार बासे हुए तिलों को पेलकर कई प्रकार के तेल तैयार होते है, जैसे, चमेली का तेल, बेले का तेल । गुलाब के तेल को गुलरोगन कहते हैं ।

२. एक पेड़ जो हिमालय पर कुमाऊँ से दारजिलिंग तक होता है । विशेष—इसके फल की गिरी खाई जाती है और उससे तेल भी निकलता है जो साबुन और मोमबत्ती बनाने के काम में आता है । इसकी लकड़ी हलके भूरे रंग की हीती है जिसकी मेज, कुरसी आदि बनती है ।