फोड़ा

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

फोड़ा संज्ञा पु॰ [सं॰ स्फोटक वा पिडिका, प्रा॰ फोड़] [स्त्री॰ फोड़िया] एक प्रकार का शोथ या उभार जो शरीर में कहीं पर कोई दोष संचित होने से उत्पन्न होता है तथा जिसमें जलन और पीड़ा होती है तथा रक्त सड़कर पौब के रुप में हो जाता है । व्रण । आफसे आप होनेवाला उभरा हुआ घाव । विशेष—सुश्रुत के अनुसार व्रण या घाव दो प्रकार के होते हैं—शारीर और आंगतुक । चरक संहिता में भी निज और आगंतुक ये दो भेद कहे गए है । शरीर वा निज व्रण वह घाव है जो शरीर में आपसे आप भीतरी दोष के कारण उत्पन्न होता है । इसी को फोड़ा कहते है । वैद्यक के अनुसार वात, पित्त, कफ या सन्निपात के दोष से ही शरीर के किसी स्थान पर शारीर व्रण या फोड़ा होता है । दोषों के अनुसार व्रण के भी वातज, पित्तज, कफज, तीन भेद किए गए हैं । वातज व्रण कड़ा या खुरखुरा, कृष्णवर्ण, अल्पस्रावयुक्त होता है और उसमें सुई चुभने की पीड़ा होती है । पित्तज व्रण बहुत दुर्गंधयुक्त होता है औऱ उसमें दाह, प्यास और पसीने के साथ ज्वर भी होता है । कफज व्रण पीलापन लिए गीला, चिपचिपा और कम पीड़ावाला होता है ।