बँधना
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]बँधना ^१ क्रि॰ अ॰ [सं॰ बन्धन]
१. बंधन में आना । डोरी तागे आदि से घिरकर इस प्रकार कसा जाना कि खुल या बिखर न सके या अलग न हो सके । बद्ध होना । छूटा हुआ न रहना । बाँधा जाना ।
२. रस्सी आदि द्वारा किसी वस्तु के साथ इस प्रकार संबंध होना कि कहीं जा न सके ।— जैसे, घोड़ा बँधना, गाय बँधना । संयो॰ क्रि॰— जाना । विशेष—इस क्रिया का प्रयोग अन्यान्य अनेक क्रियाओं की भाँति उस चीज के लिये भी हीता है जो बाँधी जाती है और उसके लिये भी जिससे बाँघते है । जैसे,— सामान बँधना, गठरी बँधना, रस्ती बँधना ।
३. कैद होना । बंदी होना । मुहा॰— बँधे चले आना = चुपचाप कैदियों की तरह या स्वामि- भक्त सेवक की तरह जिधर लाया जाय उधर आना । उ॰ — अगर यही हथकंडे हैं तो दस पाँच दिन में जवानाने तुर्क बँधे चले आएँगे ।—फिसाना॰, भा॰ ३, पृ॰ १९२ ।
४. स्वच्छंद न रहना । ऐसी स्थिति में रहना जिसमें इच्छानुसार कहीं आ जा न सकें या कुछ कर न सकें । प्रतिबंध रहना । फँसना । अटकना ।
४. प्रतिज्ञा या वचन आदि से बद्ध होना । शर्त वगैरह का पाबंद होना ।
६. गँठना । ठीक होना । दुरुस्त होना । जैसे, मजमून बँधना ।
७. क्रम निर्धा- रित होना । कोई बात इस प्रकार चली चले, यह स्थिर होना । चला चलनेवाला कायदा ठहराना । जैसे, नियम बँधना, बारी बँधना । उ॰— तीनहुँ लोकन की तरुणीन की बारी बँधी हुती दंड दुहू की ।— केशव (शब्द॰) ।
८. प्रेमपाश में बद्ध होना । मुग्ध होना । उ॰—अली कली ही तें बँध्यो आगे कौन हवाल ।— बिहारी (शब्द॰) । विशेष— दे॰ 'बाँधना' ।
बँधना ^२ संज्ञा पुं॰ [सं॰ बन्धन]
१. वह वस्तु (कपड़ा या रस्सी आदि) जिससे किसी चीज को बाँधें । बाँधने का साधन ।
२. वह थैली जिसमे स्त्रियाँ सीने पिरोने का सामान रखती है ।