बरत
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प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]बरत ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰ व्रत] ऐसा उपवास जिसके करने से पुण्य हो । परमार्थसाधन के लिये किया हुआ उपवास । विशेष— दे॰ 'व्रत' । उ॰—जप तप संध्या बरत करि तजै खजाना कोष । कह रघुनाथ ऐसे नृपै रती न लागै दोष । —रघुनाथ- दास (शब्द॰) । यौ॰—तीरथ बरत = उ॰—नारद कहि संवाद अपारा । तीरथ बरत महा मत सारा ।—सबलसिंह (शब्द॰) ।
बरत ^२ संज्ञा स्त्री॰ [हिं॰ बरना (= बटना)]
१. रस्सी । उ॰— बरत बाँधकर घरन में कला गगन में खाय । अर्ध अर्ध नट ज्यों फिरै सहजो राम रिझाय ।—सहजो॰, पृ॰ ४२ ।
२. नट की रस्सी जिसपर चढ़कर वह खेल करता है । उ॰— (क) डीठ बरत बाँधी अटनि चढ़ि धावत न डरात । इत उत ते चित दुहुन के नट लौं आवत जात ।—बिहारी (शब्द॰) । (ख) दुहूँ कर लीन्हें दोऊ बैस बिसवास वास डीठ की, बरत चढ़ी नाचै भौं नटिनी ।—देव (शब्द॰) ।