बरु
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प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]बरु पु ^१ अव्य [सं॰ वर (=श्रेष्ठ, भला)] भले ही । ऐसा हो जाय तो हो जाय । चाहे । कुछ हर्ज नहीं । कुछ परवा नहीं । उ॰—(क) सूरदास बरु उपहास सहोई सुर मेरे नंद सुवन मिलैं तो पै कहा चाहिए ।—सूर (शब्द॰) । (ख) बरु तीर मारहु लषनु पे जब लगि न पाय पखारिहौं ।—मानस, २ । १०० ।
बरु † संज्ञा पुं॰ [हिं॰] दे॰ 'वर' । उ॰—लिख लाई सिय को बरु ऐसो । राजकुमारहि देखिय ऐसो ।—केशव (शब्द॰) ।