ब्रह्मचर्य

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

ब्रह्मचर्य संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. योग में एक प्रकार का यम । वीर्य को रक्षित रखने का प्रतिबंध । मैथुन से बचने की साधना । विशेष—शुक्र धातु को विचलित न होने देने से मन और बुद्धि की शक्ति बहुत बढ़ती है और चित्त की चंचलता नष्ट होती है ।

२. चार आश्रमों में पहला आश्रम । आयु या जीवन के कर्तव्या- नुसार चार विभागो में सं प्रथम विभाग जिसमें पुरुष को स्त्री संभोग आदि व्यसनों से दूर रहकर अध्ययन में लगा रहना चाहिए । विशेष—प्राचीन काल में उपनयन संस्कार के उपरांत बालक इस आश्रम में प्रवेश करता था और आचार्य के यहाँ रहकर वेदशास्त्र का अध्ययन करता था । ब्रह्मचारी के लिये मद्य- मांस-ग्रहण गंधद्रव्य सेवन, स्वादिष्ट और मधुर वस्तुओं का खाना, स्त्रीप्रसंग करना, नृत्यगीतादि देखना सुनना, सारांश यह कि सब प्रकार के व्यसन निषिद्ध थे । उसे अच्छे गृहस्थ के यहाँ से भिक्षा लेना आचार्य के लिये आवश्यक वस्तुओं को जुटाना पड़ता था । भिक्षा माँगने में गुरु का कुल, अपना कुल और नाना का कुल बचाना पड़ता था । पर यदि भिक्षा योग्य कोई गृहस्थ न मिलता तो वह नाना- मामा के कुल से माँगना आरंभ कर सकता था । नित्य समिधकाष्ठ वन से लाकर प्रातः सायं होम करना होता था । यह होम यदि छुट जाता तो अवकीर्णी प्रायश्चित्त करना पड़ता था । ब्राह्मण ब्रह्मचारी के लिये एकांतभोजन आवश्यक होता था, पर क्षत्रिय और वैश्य ब्रह्मचारी के लिये नहीं । ब्रह्मचारी के लिये भिक्षा के समाय आदि को छोड़ सदा आचार्य के सामने रहना कर्तव्य था । आचार्य न हों तो आचार्य पुत्र के पास वह भी न हो तो अग्निहोत्र की अग्नि के पास रहना होता था । ब्रह्मचर्य दो प्रकार का कहा गया है—एक उपकुर्वाण जो गृहस्था- श्रम में प्रवेश करने के पूर्व सब द्विजों का कर्तव्य है, दुसरा नैष्ठिक जो आजीवन रहता है ।