मथना

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

मथना ^१ क्रि॰ स॰ [सं॰ मथन वा मन्थन]

१. किसी तरल पदार्थ को लकड़ी आदि से वेगपूर्वक हिलाना या चलाना । बिलोना । रिड़कना । जैसै, दही मथना, समुद्र मथना इत्यादि । उ॰— (क) का भा जोग कहानी कथें । निकसै धीव न बिनु दधि मथें ।—जायसी (शब्द॰) । (ख) दत्तात्रेय ममं नहिं जाना मिथ्या स्वाद भुलाना । सलिला मथि कै घृत को काढेउ ताहि समाधि समाना ।—कबीर (शब्द॰) । (ग) मुदिता मथइ बिचार मथानी । दम अधार रजु सत्य सुबानी ।— तुलसी (शब्द॰) । क्रि॰ स॰—डालना ।—देना ।—लेना ।

२. चलाकर मिलाना । गति देकर एक में मिलाना । उ॰— मथि मृग मलय कपुर सबन के तिलक किए । कर मणि माला पहिराए सबन विचित्र ठए ।—सूर (शब्द॰) ।

३. न्यस्त व्यस्त करना । नष्ट करना । ध्वंस करना । उ॰— (क) सेन सहित तव मान मथि, बन उजारि पुर जारि । कस रे सठ हनुमान कपि, गएउ जो तव सुत मारि ।— तुलसी (शब्द॰) । (ख) अध वक शकट प्रलंव हानि, मारेउ गज चाणूर । धनुष भंजि द्दढ़ दौरि पुनि, कंस मथे मदमूर ।—केशव (शब्द॰) ।

४. घूम घूमकर पता लगाना । बार बार श्रमपूर्वक ढूँढ़ना । पता लगाना । जैसे—तुम्हारे लिये सारा शहर मथ डाला गया, पर कहीं तुम्हारा पता न लगा ।

५. पके हुए फोड़े आदि का फूटने के लिये रभीतर ही भीतर टीसना । दर्द करना ।

६. किसी बात को बारंबार विचारना, सोचना । उ॰—ज्ञान कथा को मथि मन देखो ऊधो बहु धोपी । टरति घरी धिन एक न अँखिया श्याम रूप रोपी ।— सूर (शब्द॰) ।

७. बार बार किसी क्रिया का करना । किसी कार्य को बहुत अधिक बार करना ।

मथना ^२ संज्ञा पुं॰ मथानी । रई । उ॰—घूमि रहे जित दधि मथना सुनत मेघ ध्वनि लाज रा । चरनों कहा सदन की सोभा वैकुंठह ते राजै री ।—सूर (शब्द॰) ।