मन्त्र
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]मंत्र संज्ञा पुं॰ [सं॰ मन्त्र]
१. गोप्य या रहस्यपूर्ण बात । सलाह । परामर्श । उ॰—मत्र कहैं निज मति मति अनुसारा । दूत पठाइय बालिकुमारा ।—मानस, ९ ।१७ ।
२. देवाधिसाधन गायत्री आदि वैदिक वाक्य जिनके द्वारा यज्ञ आदि क्रिया करने का विधान हो । विशेष—निरुक्त के अनुसार वैदिक मंत्रों के तीन भेद हैं— परीक्षकृत, प्रत्यक्षकृत और आध्यात्मिक । जिन मंत्री द्वारा देवता को परोक्ष मानकर प्रथम पुरुष की क्रिया या प्रयोग करके स्तुति आदि की जाती है, उसे परोक्षकृत मत्र कहते हैं । जिन मत्रों में देवता को प्रत्यक्ष मानकर मव्यम पुरुष के सर्वनाम और क्रिया का प्रयोग करके उसकी स्तुति आदि होती है, उसे प्रत्यक्षकृत कहते हैं । जिन मंत्रों में देवता का आरोप अपने में करके उत्तम पुरुष के सर्वनाम और क्रियाओं द्वारा उसकी स्तुति आदि की जाती है, वे आध्यात्मिक कहलाते हैं । मत्रों के विषय प्रायःस्तुति, आशीर्वाद, शपथ, अभिशाप, परिदेवना, निंदा आदि होते हैं । मीमांसा के अनुसार वेदों का वह वाक्य जिसके द्वारा किसी कर्म के करने की प्रेरणा पाई जाय, मत्रपद वाच्य है । मीमांसक मत्र को ही देवता मानते हैं और उसके अतिरिक्त देवता नहीं मानते । वैदिक मंत्र गद्य और पद्य दोनों रूपों में पाए जाते हैं । गद्य को यजु और पद्य को ऋचा कहते हैं । जो पद्य गाए जाते है, उन्हें साम कहते हैं । इन्हीं तीन प्रकार के मंत्रों द्वारा यज्ञ के सब कर्म संपादित होते हैं ।
३. वेदों का वह भाग जिसमें मत्रों का संग्रह है । संहिता ।
४. तत्र के अनुसार वे शब्द वा वाक्य जिनका जप भिन्न भिन्न देवताओ की प्रसन्नता वा भिन्न भिन्न कामनाओं की सिद्धि के लिये करने का विधान हे । ऐसा शब्द या वाक्य जिसके उच्चारण में कोई दैवी प्रभाव वा शक्ति मानी जाती हो । विशेष—इन मत्रों में एकाक्षर मंत्र जो अविस्पष्टार्थ हों, वीज- मत्र कहलाते हैं । क्रि॰ प्र॰—पढ़ना । यौ॰—मंत्र यंत्र वा यंत्र मंत्र = जादू टोना । उ॰—डाकिनी साकिनी खेचर भूवर यत्र मत्र भजन प्रबल कल्मसारी ।— तुलसी (शब्द॰) । मंत्र तंत्र वा तंत्र मंत्र = दे॰ 'तंत मत' ।