मरोड़
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]मरोड़ संज्ञा स्त्री॰ [हि॰ मरोड़ना]
१. मरोड़ने का भाव या क्रिया । उ॰— मानत लाज लगाम नहिं नेकु न गहन मरोर । होत तीहि लाखि बाल के दृग तुरंग मँह जोर ।—मतिराम (शब्द॰) । मुहा॰—मरोड़ खाना=चक्कर खाना । उ॰— न्हाय बसन पहिरन लगी बस न चल्यो चित चोर । खाय मरोड़ खड़े गिरयो गड़े कड़े कुच कोर ।— रामसहाय (शब्द॰) । मनु में मरोड़ करना=मन में दुराव या कपट रखना । कपट करना । उ॰— साधू आवत देखि के मन में करत मरोर । सो होवेगा चूहड़ा बसे गाँव की और ।—कबीर (शब्द॰) । मरोड़ की बात= पेंचदार बात । घूमाव की बात ।
२. मरोड़ने से पड़ा हुआ घुमाव । ऐँठन । बल ।
३. उद्वेग आदि के कारण उत्पन्न पीड़ा । व्यथा । क्षोभ । उ॰— (क) घिरि आए चहु ओर घन तेहि तकि मारेस सोर । मोर सोर सुनि होत री तन में अधिक मरोर ।—रामसहाय (शब्द॰) । (ख) झिलत झकोर रहै जोबन को जोर रहै समद मरोर रहै शोर रहै तब सो ।—पद्माकर (शब्द॰) । (ग) इक ता मार मरोर ते मरति भरति है साँस । दूजे जारत मास री यह सुचि लौं सुचि मास ।—रामसहाय (शब्द॰) । मुहा॰—मरोड़ा खाना=उलझन में पड़ना । उ॰— गुलफनि लों ज्यों त्यों गयो करि करि साहस जोर । फिर न फिरयो सुरवान चपि चित अति खात मरीर ।— रामसहाय (शब्द॰) ।
४. पेट में ऐंठन और पीड़ा होना । पेट ऐँठना ।
५. घमंड । गर्व । उ॰— आए आप भली कहो भेटन मान मरोर । दूर करौ यह देखिहै छला छिगुनिया छोर ।— बिहारी (शब्द॰) ।
६. क्रोध । गुस्सा । मुहा॰— मरोड़ गहना=क्रोध करना । उ॰— रह्यो मोह मिलना रह्यो यों कहि गहैं मरोर । उत दै सखिहि उराहनो इत चितई मों और ।— बिहारी (शब्द॰) । विशेष—पुरानी कविताओं में प्रायः 'मरोड़ा' के स्थान में 'मरोर' ही पाया जाता है ।