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महर

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प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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महर ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰ महत् या महार्ह, हिं॰ महरा (= बड़ा, श्रेष्ठ)] [स्त्री॰ महरि]

१. व्रज में बोला जानेवाला एक आदर- सूचक शब्द जिसका व्यवहार विशेषतः जमादारों और वैश्यों आदि के संबंध में होता है । (कभी कभी इस शब्द का व्यवहार केवल श्रीकृष्ण के पालक और पिता नंद के लिये भी बिना उनका नाम लिए ही होता है) । उ॰—महर निनय दोउ कर जोरे घृत मिष्टान षय बहुत मनाया ।—सूर (शब्द॰) । (ख) फूर आभलाषन को चाखने के माखन लै दाखन मधुर भरे महर मंगाय रे ।—दीन (शब्द॰) । (ग) व्रज की विरह अरु संग महर की कुवरिहि वरत न नेकु लजान ।—तुलसी (शब्द॰) ।

२. एक प्रकार का पक्षी । उ॰— सारो सुवा महर कोकिला । रहसत आइ पपीहा मिला ।—जायसी (शब्द॰) ।

३. दे॰ 'महरा' । उ॰—नाऊ बारी महर सब, धाऊ धाय समेत ।—रघुराज (शब्द॰) ।

महर ^२ वि॰ [फ़ा॰ मेहर (= दया)] दयावान् । दयालु । (डिं॰) ।

महर ^३ संज्ञा पुं॰ [अ॰]

१. मुसलमानों में वह संपत्ति या धन जो विवाह के समय वर की ओर से कन्या को देना निश्चित होता है । मुहा॰—महर बख्शवाना = महर के लिये निश्चित किए गए धन को पत्नी से कह सुनकर पति द्वारा माफ कराना । महर बाँधना = महर के लिये धन या संपत्ति नियत करना ।

महर पु † ^४ संज्ञा स्त्री॰ [फ़ा॰ मेह्र] दया । कृपा । उ॰—किकरि ऊपर महर कर, संकर मेट सँदेह ।—रघु॰ रू॰, पृ॰ ५६ ।

महर ^५ वि॰ [हिं॰ महक] महमहा । सुगंधित । उ॰—(क) महर महर घर बाहर राउर देहु । लहर लहर छवि तम जिमि, ज्वलन सनेह ।—रहिमन (शब्द॰) । (ख) महर महर करै फूल नोंद नहिं आइल हो ।—धरम॰ श॰, पृ॰ ६२ ।