महुआ

विक्षनरी से
महुआ

हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

महुआ ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰ मधूक, प्रा॰ महुअ] एक प्रकार का वृत्त जो भारतवर्ष के सभी भागों में होता है और पहाड़ों पर तीन हजार फुट की ऊँचाई तक पाया जाता है । विशेष—इसकी पत्तियाँ पाँच सात अंगुल चौड़ी, दस बारह अंगुल लंबी और दोनों ओर नुकीली होती हैं । पत्तियों का ऊपरी भाग हलके रंग का और पीठ भूरे रंग की होती है । हिमालय की तराई तथा पंजाब के अतिरिक्त सारे उत्तरीय भारत तथा दक्षिण में इसके जंगल पाए जाते हैं जिनमें वह स्वच्छंद रूप से उगता है । पर पंजाब में यह सिवाय बागों के, जहाँ लोग इसे लगाते हैं, और कहीं नहीं पाया जाता । इसका पेड़ ऊँचा और छतनार होता है और डालियाँ चारों और फैलती है । यह पेड़ तीस चालीस हाथ ऊँचा होता है और सब प्रकार की भूमि पर होता है । इसके फूल, फल, बीज लकड़ी सभी चीजें काम में आती है । इसका पेड़ वीस पचीस वर्ष में फूलने और फलने लगता और सैकडों वर्ष तक फूलता फलता है । इसकी पत्तियाँ फूलने के पहले फागुन चैत में झड़ जाती हैं । पत्तियों के झड़ने पर इसकी डालियों के सिरों पर कलियों के गुच्छे निकलने लगते हैं जो कूर्ची के आकार के होते है । इसे महुए का कुचियाना कहते हैं । कलियाँ बढ़ती जाती है और उनके खिलने पर कोश के आकार का सफेद फूल निकलता है जो गुदारा और दोनों ओर खुला हुआ होता है और जिसके भीतर जीरे होते हैं । यही फूल खाने के काम में आता है और महुआ कहलाता है । महुए का फूल बीस वाइस दिन तक लगातार टपकता है । महुए के फूल में चीनी का प्रायः आधा अंश होता है, इसी से पशु, पक्षी और मनुष्य सब इसे चाव से खाते हैं । इसके रस में विशेषता यह होती है कि उसमें रोटियाँ पूरी की भाँति पकाई जा सकती हैं । इसका प्रयोग हरे और सूखे दोनों रूपों में होता है । हरे महुए के फूल को कुचलकर रस निकालकर पूरियाँ पकाई जाती हैं और पीसकर उसे आटे में मिलाकर रोटियाँ बनाते हैं । जिन्हें 'महुअरी' कहते हैं । सूखे महुए को भूनकर उसमें पियार, पोस्ते के दाने आदि मिलाकर कूटते हैं । इस रूप में इसे लाटा कहते हैं । इसे भिगोकर और पीसकर आटे में मिलाकर 'महुअरी' बनाई जाती है । हरे और सूखे महुए लोग भूनकर भी खाते हैं । गरीबों के लिये यह बड़ा ही उपयोगी होता है । यह गौंओ, भैसों को भी खिलाया जाता है जिससे वे मोटी होती हैं और उनका दूध बढ़ता है । इरासे शराब भी खींची जाती है । महुए की शराब को संस्कृत में 'माध्वी' और आजकल के गँवरा 'ठर्रा' कहते हैं । महुए का फूल बहुत दिनों तक रहता है और बिगड़ना नहीं । इसका फल परवल के आकार का होता है और कलेंदी कहलाता है । इसे छील उबालकर और बीज निकालकर तरकारी भी बनाई जाता है । इसके बीच में एक बीज होता है जिससे तेल निकलता है । वैद्यक में महुए के फूल को मधुर, शीतल, धातु- वर्धक तथा दाह, पित्त और बात का नाशक, हृदय को हितकर औऱ भारी लिखा है । इसके फल को शीतल, शुक्रजनक, धातु और बलबंधक, वात, पित्त, तृपा, दाह, श्वास, क्षयी आदि को दूर करनेवाला माना है । छाल रक्तपितनाशक और व्रणशोधक मानी जाती है । इसके तेल को कफ, पित्त और दाहनाशक और सार को भूत-बाधा-निवारक लिखा है । पर्या॰—मधूक । मधुष्ठील । मधुखवा । मधुपुष्य । रोध्रपुष्प । माधव । वानप्रस्थ । मध्वग । तीक्ष्णसार । महाद्रुम ।

महुआ ^२ संज्ञा स्त्री॰ महुए की वनी शराब । उ॰—शोर, हँसी, हुल्लड़, हुड़दँग, धमक रहा थाग्डांग मृदंग । मार पीट बकवास, झड़प में, रंग दिखाती महुआ भंग । यह चमार चौदस का ढंग । ग्राम्या, पृ॰ ४९ ।

महुआ दही संज्ञा पुं॰ [हिं॰ महना + दही] वह दही जिसमें से मथकर मक्खन निकाल लिया गया हो । मखनिया दही ।