मीमांसा

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशित कोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

मीमांसा संज्ञा स्त्री॰ [सं॰]

१. किसी तत्व का विचार, निर्णय या विवेचन । अनुमान, तक आदि द्वारा यह स्थिर करना कि कोई बात कैसी है । उ॰—अश्लीलता की मीमांसा के समय अपने पक्ष को न देखकर दूसरे पक्ष की भी देखना चाहिए ।—रस क॰, पृ॰ ४ ।

२. हिंदुओं के छह् दर्शनों में से दो दर्शन जो पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा कहलाते हैं । विशेष— साधारणतः मीमांसा शब्द से पूर्व मीमांसा का ही ग्रहण होता है; उत्तर मीमांसा 'वेदांत' के नाम से ही अधिक प्रसिद्ध है ।

३. जैमिनि कृत दर्शन जिसे पूर्व मीमांसा कहते हैं और जिसमें वेद के यज्ञपरक वचनों की व्याख्या बड़े विचार के साथ की गी है । विशेष— इसके सूत्र जैमिनि के हैं और भाष्य शबर स्वामी का है मीमांसा पर कुमारिल भट्ट के 'कातंत्रवार्तिक' और 'श्लोकवार्तिक' भी प्रसिद्ध हैं । माधवाचार्य ने भी 'जैमिनीय न्यायमाला विस्तार' नामक एक भाष्य रचा है । मीमांसा शास्त्र में यज्ञों का विस्तृत विवेचन है, इससे इसे 'यज्ञविद्या' भी कहते हैं । बारह अध्यायों में विभक्त होने के कारण यह मीमांसा 'द्वादशलक्षणी' भी कहलाती है । 'न्यायमाला विस्तार' में माधवाचार्य ने मीमांसासूत्रों के विषय में संक्षेप में इस प्रकार बताया है—पहले अध्याय में विधि, अर्थवाद, मंत्र, स्मृति और नामधेय की प्रामाणिता का विचार है । दूसरे मे अपूर्व कर्म और उसके फल का प्रीतपादन तथा विधि और निषेध का प्रक्रिया है; तीसरे मे श्रुतिलिंग वाक्यादि की प्रमाणता और अप्रमाणता कही गई है; चौथे में नित्य और नैमित्तिक यज्ञों का विचार है; पाँचवें में यज्ञो और श्रुतिवाक्या के पूर्वापर संबंध पर विचार किया गया । छठे में यज्ञों के करन और करानेवाला के अधिकार का निर्णय हे; सातवें और आठवें म एक यज्ञ की विधि को दूसरे यज्ञ में करने का वर्णन है; नवें में मंत्रों के प्रयोग का विचार है; दसवें मैं यज्ञों में कुछ कर्मों के करने या न करने से होनेवाले दोषों का वर्णन है; ग्यारहवे में तंत्रों का विचार है; और बारहवें में प्रसंग का तथा कोई इच्छा पूर्ण करने के हेतु यज्ञों के करने का विवेचन है । इसी बारहवें अध्याय में शब्द के नित्यानित्य होने के संबंध में भी सूक्ष्म विचार करके शब्द की नित्यता प्रतिपादित की गई है । मीमांसा में प्रत्येक अधिकरण के पाँच भाग हैं—विषय, संशय, पूर्वपक्ष, उत्तरपक्ष और सिद्धांत । अतः सूत्रों को समझने के के लिये यह जानना आवश्यक होता है कि कोई सूत्र इन पाँचों में से किसका प्रतिपादक है । इस शास्त्र में वाक्य, प्रकरण, प्रसंग या ग्रंथ का तात्पर्य निकालने लिये बहुत सूक्ष्म नियम और युक्तियाँ दी गई हैं । मीमांसकों का यह श्लोक सामान्यतः तात्पर्यनिर्णय के लिये प्रसिद्ध हैं— "उपक्रमोपसंहारौ अभ्यासोऽपूर्वताफलम् । अर्थवादोपपत्ति च लिङ्ग तात्पर्यनिर्णये ॥" अर्थात् किसी ग्रंथ या प्रकरण के तात्पर्यनिर्णय के लिये छह बातों पर ध्यान देना चाहिए— (१) उपक्रम (आरंभ) और उपसंहार (अंत), (२) अभ्यास (बार-बार कथन), (३) अपूर्वता (नवीनता), (४) फल (ग्रंथ का परिणाम वा लाभ जो बताया गया हो), (५) अर्थवाद (किसी बात को जी में जमाने के लिये दृष्टांत, उपमा, गुणकथन आदि के रूप में जो कुछ कहा जाय और जो मुख्य बात के रूप में न हो), और (६) उपपत्ति (साधक प्रमाणों द्वारा सिद्धि) । मीमांसक ऐसे ही नियमों के द्वारा वेद के वचनों का तात्पर्य निकालते हैं । शब्दार्थों का निर्णय भी विचारपूर्वक किया गया है । जैसे,—यज्ञ के लिये जहाँ 'सहस्र संवत्सर' हो, वहाँ 'संवत्सर' का अर्थ दिवस लेना चाहिए, इत्यादि । मीमांसाशास्त्र कर्मकांड का प्रतिपादक है; अतः मीमांसक पौरुषेय, अपौरुषेय सभी वाक्यों को कार्यपरक मानते हैं । वे कहते हैं कि प्रत्येक वाक्य किसी व्यापार या कर्म का बोधक होता है, जिसका कोई फल होता है । अतः वे किसी बात के संबंध में यह निर्णय करना बहुत आवश्यक मानते हैं कि वह 'विधि- वाक्य' (प्रधान कर्म सूचक) है अथवा केवल अर्थवाद (गौण कथन, जो केवल किसी दूसरी बात को जी में बैठाने, उसके प्रति उत्तेजना उत्पन्न करने, आदि के लिये हो) । जैसे रणक्षेत्र में जाओ, वहाँ स्वर्ग रखा है । इस वाक्य के दो खंड हैं ।— 'रणक्षेत्र में जाओ' यह तो विधिवाक्य या मुख्य कथन है, और 'वहाँ स्वर्ग रखा है' यह केवल अर्थवाद या गौण बात है । मीमांसा का तत्वसिद्धांत विलक्षण है । इसकी गणना अनीश्वरवादी दर्शनों में है । आत्मा, ब्रह्म, जगत् आदि का विवेचन इसमें नहीं है । यह केवल बेद वा उसके शब्द की नित्यता का ही प्रतिपादन करता है । इसके अनुसार मंत्र ही सब कुछ हैं । वे ही देवता हैं; देवताओं की अलग कोई सत्ता नहीं । 'भट्ट दीपिका' में स्पष्ट कहा है 'शब्द मात्रं देवता' । मीमांसकों का तर्क यह है कि सब कर्म फल के उद्देश्य से होते हैं । फल की प्राप्ति कर्म द्वारा ही होती हैं अतः वे कहते हैं कि कर्म और उसके प्रतिपादक वचनों के अतिरिक्त ऊपर से और किसी देवता या ईश्वर को मानने की क्या आवश्यकता है । मीमांसकों और नैयायिकों में बड़ा भारी भेद यह है कि मीमांसक शब्द को नित्य मानते हैं और नैयायिक अनित्य । सांख्य और मीमांसा दोनों अनीश्वरवादी हैं, पर वेद की प्रामाणिकता दोनों मानते हैं । भेद इतना ही है कि सांख्य प्रत्येक कल्प में वेद का नवीन प्रकाशन मानता है और मीमांसक उसे नित्य अर्थात् कल्पांत में भी नष्ट न होनेवाला कहते हैं । इस शास्त्र का 'पूर्वमीमांसा' नाम इस अभिप्राय से नहीं रखा गया है कि यह उत्तरमीमांसा से पहले बना । 'पूर्व' कहने का तात्पर्य यह है कि कर्मकांड मनुष्य का प्रथम धर्म है ज्ञानकांड का अधिकार उसके उपंरात आता है ।