मूत्राघात

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

मूत्राघात संज्ञा पुं॰ [सं॰] पेशाब बंद होने का रोग । मूत्र का रुक जाना । विशेष—वैद्यक में यह रोग बारह प्रकार का कहा गया है— (१) वातकुंडली, जिसमें वायु कुपित होकर वस्तिदेश में कुंडली के आकार में टिक जाती है, जिससे पेशाब बंद हो जाता है । (२)वातष्ठीला जिसमें वायु मूत्र द्वारा या वस्ति देश में गाँठ या गोले के आकार में होकर पेशाब रोकती है । (३) वातवस्ति, जिसमें मूत्र के वेग के साथ ही वस्ति की वायु वस्ति का मुख रोक देती है । (४) मूत्रातीत, जिसमें बार बार पेशाव लगता और थोड़ा थोड़ा होता है । (५) मूत्रजठर, जिसमें मूत्र का प्रवाह रुकने से अधोवायु कुपित होकर नाभि के नीचे पीड़ा उत्पन्न करती है । (६) मूत्रोत्संग, जिसमें उतरा हुआ पेशाव वायु की अधिकता से मूत्र नली या वस्ति में एक बार रुक जाता है और फिर बड़े वेग के साथ कभी कभी रक्त लिए हुए निकलता है । (७) मूत्रक्षय, जिसमें खुश्की के कारण वायु पित्त के योग से दाह होता है और मूत्र सूख जाता है । (८) मूत्रग्रंथि, जिसमें वस्तिमुख के भीतर पथरी की तरह गाँठ सी हो जाती है और पेशाव करने में बहुत कष्ट होता है । (९) मूत्रशुक्र, जिसमें मूत्र के साथ अथवा आगे पीछे शुक्र भी निकलता है । (१०) उष्णवात, जिसमें व्यायाम या अधिक परिश्रम करने, और गरम ी या धूप सहने से पित्त कुपित होकर वस्तिदेश में वायु से आवृत हो जाता है । इसमें दाह होना है और मूत्र हलदी की तरह पीला और कभी कभी रक्त मिला आता है । इसे 'कड़क' कहते है । (११) पित्तज मूत्रौकसाद, जिसमें पेशाव कुछ जलन के साथ गाढ़ा गाढ़ा होकर निकलता है और सूखने पर गोरोचन के चूर्ण की तरह हो जाता है; और (१२) कफज मूत्रौकसाद, जिसमें सफेद और लुआवदार पेशाब कष्ट से निकलता है ।