मृगांक
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प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]मृगांक संज्ञा पुं॰ [सं॰ मृगाङ्क]
१. चंद्रमा । उ॰—दुजराजा शशधर उदधितनय ससांक मृगांक ।—नंद॰ ग्रं॰, पृ॰ ११६ ।
२. एक रस जो सुवर्ण और रत्नादि से बनता है और क्षय रोग में विशेष उपकारी होता है । विशेष दे॰ 'मृगांकरस' । उ॰—(क) राम की रजाइ ते रसाइनी समीर सुनु उकतरि परयोधि पार सोधि के ससांक सो । जातुधान वुट पुट पाक लंक जातरुप रतन जतन जारि कियो है मृगांक सो ।—तुलसी (शब्द॰) । (ख) किधौं विराट के सुरारि राजरोग जानि जु । निमित्त तासु बैद ज्यौं जरयौ मृगांक ठानि जु ।—रघुनाथदास (शब्द॰) ।