मेरु
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]मेरु संज्ञा पुं॰ [सं॰]
१. एक पुराणोक्त पर्वत जो सोने का कहा गया है । विशेष दे॰ 'सुमेरु' । पर्या॰—हेमाद्रि । रत्नसानु । सुरालय ।
२. जपमाला के बीज का बड़ा दाना जो और सब दानों के ऊपर होता है । इसी से जप का आरंभ और इसी पर उसकी समाप्ति होती है । सुमेरु । (जप करते समय 'मेरु' का उल्लंघन नहीं करना चाहिए ।) उ॰—कबिरा माला काठ की बहुत जत न का फेर । माला फेरौ साँस की जामे गाँठि न मेरु ।—कबीर (शब्द॰) ।
२. एक विशेष ढाँचे का देवमंदिर । विशेष—वृहत्संहिता के अनुसार यह षट्कोण होता है और इसमें १२ भूमिकाएँ या खंड होते हैं । अंदर अनेक प्रकार के गवाक्ष (मोखे) और चारों दिशाओं में द्वार होते हैं । इसका विस्तार ३२ हाथ और उँचाई ६४ हाथ होनी चाहिए ।
४. वीणा का एक अंग ।
५. पिंगल या छंदशस्त्र की एक गणना जिससे यह पता लगता है कितने कितने लघु गुरु के कितने छंद हो सकते हैं ।
६. करमाला में अंगुलि का पर्व या पोर (को॰) ।
७. हार का मध्यवर्ती रत्न (को॰) ।