मोह
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]मोह संज्ञा पुं॰ [सं॰]
१. कुछ का कुछ समझ लेनेवाली बुद्धि । अज्ञान । भ्रम । भ्रांति । उ॰—तुलसिदास प्रभु मोह जनित भ्रम भेदबुद्धि कब बिसरावहिंगे ।—तुलसी (शब्द॰) ।
२. शरीर और सांसारिक पदार्थों को अपना या सत्यं समझने की बुद्धि जो दुःखदायिनी मानी जाती है ।
३. प्रेम । मुहब्बत । प्यार । उ॰—(क) साँचेहु उनके मोह न माया । उदासीन धन धाम न जाया ।—तुलसी (शब्द॰) । (ख) काशीराम कहै रघुवंशऱीन की रीती यहै ज सों कीजै मोह तासा लोह कैसे गहिऐ ।—काशीराम (शब्द॰) । (ग) मोहु सो तजि मोह दृ ग चले लागि उहि गैल ।—बिहारी (शब्द॰) । (घ) रह्यौ मोह मिलनो रह्यौ कहि गहें मरोर ।—बिहारी (शब्द॰) ।
४. साहित्य में ३३ संचारी भावों में से एक भाव । भय, दुःख घबराहट, अत्यंत चिंता आदि से उत्पन्न चित्त की विकलता ।
५. दुःख । कष्ट ।
६. मूर्छा । बेहोशी । गश । उ॰—गिरयौ हंस भु भयो मोह भारी ।—रघुराज (शब्द॰) ।